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क्षुल्लक और ऐलक उक्त स्वरूपवाले क्षुल्लकोको किस श्रावक प्रतिमा स्थान दिया जाय, यह प्रश्न सर्वप्रथम श्रा० वसुनन्दिके सामने आया प्रतीत होता है, क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम ग्यारहवी प्रतिमाके दो भेद किये हैं। इनके पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यने इस प्रतिमाके दो भेद नहीं किये हैं, प्रत्युत बहुत स्पष्ट शब्दोमें उसकी एकरूपताका ही वर्णन किया है। श्रा० वसुनन्दिने इस प्रतिमाधारीके दो भेद करके प्रथमको एक वस्त्रधारक और द्वितीयको कौपीनधारक बताया है ( देखो गा० नं० ३०१) । वसनन्दिने प्रथमोत्कृष्ट श्रावकका जो स्वरूप दिया है, वह क्षुल्लकके वर्णनसे मिलता-जुलता है और उसके परवर्ती विद्वानोंने प्रथमोत्कृष्टकी स्पष्टतः क्षुल्लक संज्ञा दी है, अतः यही अनुमान होता है, कि उक्त प्रश्नको सर्वप्रथम वसुनन्दिने ही सुलझानेका प्रयत्न किया है। इस प्रथमोत्कृष्टको क्षुल्लक शब्दसे सर्वप्रथम लाटी संहिताकार पं० राजमल्लजीने ही उल्लेख किया है, हालाकि स्वतंत्र रूपसे क्षुल्लक शब्दका प्रयोग और क्षुल्लक व्रतका विधान प्रायश्चित्तचूलिकामे किया गया है, जो कि ग्यारहवीं शताब्दीके पूर्वकी रचना है। केवल क्षुल्लक शब्दका उपयोग पद्मपुराण श्रादि कथाग्रन्थों में अनेक स्थलों पर दृष्टिगोचर होता है और उन क्षुल्लकोंका वैसा ही रूप वहाँ पर मिलता है, जैसा कि प्रायश्चित्तचूलिकाकारने वर्णन किया है।
- ऐलक शब्दका अर्थ ग्यारहवीं प्रतिमाके दो भेदोंका उल्लेख सर्वप्रथम प्रा. वसुनन्दिने किया, पर वे प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्टके रूपसे ही चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी तक चलते रहे । सोलहवीं सदीके विद्वान् पं० राजमल्लजीने अपनी लाटीसहितामे सर्वप्रथम उनके लिए क्रमशः क्षुल्लक और ऐलक शब्दका प्रयोग किया है। क्षुल्लक शब्द कबसे और कैसे चला, इसका उल्लेख हम ऊपर कर आये हैं। यह 'ऐलक' शब्द कैसे बना और इसका क्या अर्थ है, यह बात यहाँ विचारणीय है। इस 'ऐलक पदके मूल रूपकी ओर गंभीर दृष्टिपात करने पर यह भ० महावीरसे भी प्राचीन प्रतीत होता है। भ० महावीरके भी पहलेसे जैन साधुओंको 'अचेलक' कहा जाता था। चेल नाम वस्त्रका है। जो साधु वस्त्र धारण नहीं करते थे, उन्हें अचेलक कहा जाता था। भगवती अाराधना, मूलाचार श्रादि सभी प्राचीन ग्रन्थोमें दिगम्बर साधुओंके लिए अचेलक पदका व्यवहार हुआ है । पर भ० महावीरके समयसे अचेलक साधुओंके लिए नग्न, निर्ग्रन्थ और दिगम्बर शब्दोंका प्रयोग बहुलतासे होने लगा। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि महात्मा बुद्ध और उनका शिष्यसमुदाय वस्त्रधारी था, अतः तात्कालिफ लोगोंने उनके व्यवच्छेद करने के लिए जैन साधुओंको नग्न, निर्ग्रन्थ आदि नामोसे पुकारना प्रारम्भ किया। यही कारण है कि स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंमें जैन साधुओंके लिए 'निग्गंठ' या णिगंठ नामका प्रयोग किया गया है, जिसका कि अर्थ निर्ग्रन्थ है। अभी तक नञ् समासका सर्वथा प्रतिषेध-परक 'न+चेलकः = अचेलकः' अर्थ लिया जाता रहा । पर जब नग्न साधुओंको स्पष्ट रूपसे दिगम्बर, निर्ग्रन्थ श्रादि रूपसे व्यवहार किया जाने लगा, तब जो अन्य समस्त बातोंमें तो पूर्ण साधुव्रतोंका पालन करते थे, परन्तु लजा, गौरव या शारीरिक लिग-दोष आदिके कारण लंगोटी मात्र धारण करते थे, ऐसे ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकोंके लिए ने समासके ईषदर्थका आश्रय लेकर 'ईषत् + चेलकः = अचेलकः' का व्यवहार प्रारम्भ हुआ प्रतीत होता है जिसका कि अर्थ नाममात्रका वस्त्र धारण करनेवाला होता है । ग्यारहवींवारहवीं शताब्दीसे प्राकृतके स्थानपर अपभ्रंश भाषाका प्रचार प्रारम्भ हुश्रा और अनेक शब्द सर्वसाधारणके व्यवहारमे कुछ भ्रष्ट रूपसे प्रचलित हुए। इसी समयके मध्य 'अचेलक' का स्थान 'ऐलक' पदने ले लिया, जो कि प्राकृत-व्याकरणके नियमसे भी सुसंगत बैठ जाता है। क्योंकि प्राकृत मै 'क-ग-च-ज त-द-प-य-वां प्रायो लुक्' (हैम० प्रा० १, १७७) इस नियमके अनुसार 'अचेलक के चकारका लोप हो जानेसे 'श्र ए ल क' पद अवशिष्ट रहता है। यही (अ+ ए =ऐ) सन्धिके योगसे 'ऐलक' बन गया ।
१ उत्कृष्टः श्रावको द्वधा क्षुल्लकश्चैलकस्तथा ।
एकादशव्रतस्थौ द्वौ स्तो द्वौ निर्जरको क्रमात् ॥५५॥--लाटी संहिता