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वसुनन्दि-श्रावकाचार परमत्थो ववहारो दुविहो कालो जिणेहिं पण्णत्तो। लोयायासपएसठियाणवो मुक्खकालस्स ॥२०॥ गोणसमयस्स' एए कारणभूया जिणेहि णिहिट्ठा ।
तीदाणागदभूश्रो बवहारो गंतसमश्रो य ॥२१॥ जिनेन्द्र भगवान्ने कालद्रव्य दो प्रकारका कहा है-परमार्थकाल और व्यवहारकाल । मुख्यकालके अणु लोकाकाशके प्रदेशोंपर स्थित है। इन कालाणुओंको व्यवहारकालका कारणभूत जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है । व्यवहारकाल अतीत और अनागत-स्वरूप अनन्त समयवाला कहा गया है ॥२०-२१॥
परिणामि-जीव-मुत्ताइएहि पाऊण दव्वसम्भावं।
जिणवयणमणुसरंतेहि थिरमइ होइ कायव्वा ॥२२॥ परिणामित्व, जीवत्व और मूर्त्तत्वके द्वारा द्रव्यके सद्भावको जानकर जिन भगवान्के वचनोंका अनुसरण करते हुए भव्य जीवोंको अपनी बुद्धि स्थिर करना चाहिए ॥२२॥
परिणामि जीव मुत्तं सपएस एयखित्त किरिया य । णिच्चं कारणकत्ता सव्वगदमियरम्हि अपवेसो ॥२३॥ दुण्णि य एयं एवं पंच य तिय एय दुण्णि चउरो य ।
पंच य एवं एयं मूलस्स य उत्तरे णेयं ॥२४॥ उपर्युक्त छह द्रव्योंमेंसे जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं । एक जीवद्रव्य चेतन है और सब द्रव्य अचेतन है। एक पदगल द्रव्य मत्तिक हे और सब जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये पांच द्रव्य प्रदेशयुक्त है, इसीलिए बहुप्रदेशी या अस्तिकाय कहलाते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश, ये तीन द्रव्य एक-एक (और एक क्षेत्रावगाही) है। एक आकाशद्रव्य क्षेत्रवान् है, अर्थात् अन्य द्रव्योंको क्षेत्र (अवकाश) देता है। जीव और पुद्गल, ये दो द्रव्य क्रियावान् हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल, ये चार द्रव्य नित्य है, (क्योंकि, इनमें व्यंजनपर्याय नहीं है ।) पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल, ये पांच द्रव्य कारणरूप हैं । एक जीवद्रव्य कर्ता है । एक आकाशद्रव्य सर्वव्यापी है। ये छहों द्रव्य एक क्षेत्रमें रहनेवाले हैं, तथापि एक द्रव्यका दूसरे में प्रवेश नहीं है। इस प्रकार छहों मूलद्रव्योंके उपर्युक्त उत्तर गुण जानना चाहिए ॥२३-२४॥
इसुहमा अवायविसया खणखइणो अस्थपज्जया दिट्ठा।
वंजणपज्जाया पुण थूला गिरगोयरा चिरविवत्था ॥२५॥ पर्यायके दो भेद हैं-अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय । इनमें अर्थपर्याय सूक्ष्म हैं, अवाय (ज्ञान) विषयक है अतः शब्दसे नहीं कही जा सकती हैं और क्षण-क्षणमें बदलती हैं। किन्तु व्यंजनपर्याय स्थूल है, शब्द-गोचर हैं अर्थात् शब्दसे कही जा सकती हैं और चिरस्थायी हैं ॥२५॥
नक
१ व्यवहारकालस्य।