Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 90
________________ नरकगतिदुःख-वर्णन उस अग्निकुंडसे भागकर पर्वतकी गुफामें 'यहां शरण मिलेगा' ऐसा समझता हुआ सहसा प्रवेश करता है ॥१५१॥ तत्थ वि पहंति उवरि सिलाउ तो ताहि चुण्णिाश्रो संतो। गलमाणरुहिरधारो रडिऊण खणं तो णी ॥१५॥ किन्तु वहांपर भी उसके ऊपर पत्थरोंकी शिलाएं पड़ती हैं, तब उनसे चूर्ण चूर्ण होता हुआ और जिसके खूनकी धाराएं बह रही हैं, ऐसा होकर चिल्लाता हुआ क्षणमात्रमें वहांसे निकल भागता है ॥१५२॥ णेरइयाण सरीरं कीरह जइ तिलपमाणखंडाइ। पारद-रसुव्व लग्गइ अपुराणकालम्मि ण मरेइ ॥१५३।। नारकियोंके शरीरके यदि तिल-तिलके बराबर भी खंड कर दिये जावें, तो भी वह पारेके समान तुरन्त आपसमे मिल जाते है, क्योंकि, अपूर्ण कालमे अर्थात् असमयमे नारकी नही मरता है ॥ १५३ ॥ तत्तो पलायमाणे। रंभइ सो णारएहिं दळूण । पाइज्जह विलवंतो अय-तंबय-कलयलं' तत्तं ॥१५॥ उस गुफामेसे निकलकर भागता हुआ देखकर वह नारकियोंके द्वारा रोक लिया जाता है और उनके द्वारा उसे जबर्दस्ती तपाया हुआ लोहा तांवा आदिका रस पिलाया जाता है ॥१५४॥ पच्चारिज्जइ ज ते पीयं मज्ज महुं च पुव्वभवे । त पावफलं पत्तं पिबेहि अयकलयलं घोरं ॥१५५।। वे नारकी उसे याद दिलाते है कि पूर्व भवमें तूने मद्य और मधुको पिया है, उस पापका फल प्राप्त हुआ है, अतः अब यह घोर 'अयकलकल' अर्थात् लोहा, तांबा आदिका मिश्रित रस पी ॥ १५५॥ कह वि तो जइ छुट्टो असिपत्तवणम्मि विसइ भयभीश्रो। णिबडंति तत्थ पत्ताई खग्गसरिसाई प्रणवरयं ॥१५६॥ __ यदि किसी प्रकार वहासे छूटा, तो भयभीत हुआ वह असिपत्र वनमें, अर्थात् जिस वनके वृक्षोंके पत्ते तलवारके समान तीक्ष्ण होते है, उसमे 'यहां शरण मिलेगा' ऐसा समझकर घुसता है । किन्तु वहांपर भी तलवारके. समान तेज धारवाले वृक्षोंके पत्ते निरन्तर उसके ऊपर पड़ते है ॥ १५६ ॥ तो तम्हि पत्तपडणेण छिएणकर-चरण भिएणपुष्ठि-सिरो। पगलंतरुहिरधारो कंदतो सो तो णीई ॥१५७॥ जब उस असिपत्रवनमें पत्तोंके गिरनेसे उसके हाथ, पैर, पीठ, शिर आदि कट-कटकर अलग हो जाते है, और शरीरसे खूनकी धारा बहने लगती है, तब वह चिल्लाता हुआ वहांसे भी भागता है ॥ १५७ ॥ तुरियं पलायमाणं सहसा धरिऊण णारया कूरा । छित्तण तस्स मंसं तुंडम्मि छुहंति तस्सेव ॥१५॥ १ इ. तेहि। २ म. णियइ। ३ ब. णइज्जइ । म. पाविजइ।. इ. अयवय, य. अससवय । ५ कलयलं-तान-शीसक-तिल-सज्ज रस-गुग्गुल-सिक्थक लवणा-जतु-वज्रलेपाः क्वाथयित्वा मिलिता 'कलकल' इत्युच्यन्ते । मूलारा० गा० १५६९ पाशाधरी टीका। ६ ब. म. तो। ७ व. तव । ८ म. वच्छ० । ९ इ. म. णियइ। १० इ. छहंति ।

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