Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 93
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . परमागममे प्रथम पृथिवीके नारकियोंकी जघन्य आयु दश हजार वर्षकी कही गई है और उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम होती है ॥ १७३ ॥ प्रथमादिक पृथिवियोमे जो उत्कृष्ट आय होती है, कुछ अधिक अर्थात् एक समय अधिक वही द्वितीयादिक पृथिवियोंमें जघन्य आयु जानना चाहिए। जिनेन्द्र भगवान्ने द्वितीयादिक पृथिवियोंमे उत्कृष्ट आयुका प्रमाण क्रमसे तीन सागर, सात सागर, दश सागर, सत्तरह सागर, बाईस सागर और तैतीस सागर प्रमाण कहा है ॥ १७४-१७५ ॥ एत्तियपमाणकालं सारीरं माणसं बहुपयारं । दुक्खं सहेइ तिव्वं वसणस्स फलेणिमो जीवो ॥१७६॥ व्यसन-सेवनके फलसे यह जीव इतने (उपर्युक्त-प्रमाण) काल तक नरकोमे अनेक प्रकारके शारीरिक और मानसिक तीव्र दुःखको सहन करता है ॥ १७६ ॥ तिर्यंचगतिदुःख-वर्णन तिरियगईए वि तहा थावरकाएसु बहुपयारेसु । अच्छइ अणंतकालं हिंडतो जोणिलक्खेसु ॥१७७॥ इसी प्रकार व्यसन-सेवनके फलसे यह जीव तिर्यञ्च गतिकी लाखों योनिवाली बहुत प्रकारकी स्थावरकायकी जातियोंमें अनन्त काल तक भ्रमण करता रहता है ॥ १७७ ॥ कहमवि णिस्सरिऊणं तत्तो वियलिंदिएसु संभवइ । तत्थ वि किलिस्समाणो कालमसंखेज्जयं वसइ ॥१७॥ उस स्थावरकायमसे किसी प्रकार निकलकर विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न होता है, तो वहां भी क्लेश उठाता हुआ असंख्यात काल तक परिभ्रमण करता रहता है ॥ १७८ ॥ तो खिल्लविल्लजोएण कह वि पंचिंदिएस उववरणो। तत्थ वि असंखकालं जोणिसहस्सेसु परिभमइ ॥१७९॥ यदि कदाचित् खिल्लविल्ल योगसे पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो गया, तो वहां भी असंख्यात काल तक हजारों योनियोंमें परिभ्रमण करता रहता है ॥ १७९ ॥ छेयण-भेयण-ताडण-तासण-णिलंछणं तहा दमणं । णिक्खलण-मलण-दलणं पउलण उक्कत्तणं चेव ॥१०॥ पंधण-भारारोवण लंछण पाणण्णरोहणं सहणं । सौउपह-भुक्ख-तराहादिजाण तह पिल्लयविनोयं ॥१८॥ तिर्यञ्च योनिमें छेदन, भेदन, ताड़न, त्रासन, निलांछन (बधिया करना), दमन, निक्खलन (नाक छेदन), मलन, दलन, प्रज्वलन, उत्कर्तन, बंधन, भारारोपण, लांछन (दागना), अन्न-पान-रोधन, तथा शीत, उष्ण, भूख, प्यास आदि बाधाओंको सहता है, और पिल्लों (बच्चों) के वियोग-जनित दुखको भोगता है। ।। १८०-१८१॥ सबमें भुनते हुए धान्यमें से दैववशात् जैसे कोई एक दाना उछलकर बाहिर आ पड़ता है उसी प्रकार दैववशात् एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों में से कोई एक जीव निकलकर पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो जाता है, -सबसे खिल्लविल्ल योगसे उत्पन्न होना कहते हैं। २ मूलारागा० १५८२ ३ मूलारागा १५६३ ।। स्तनन्धयवियोगमित्यर्थः ।

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