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सचित्तत्यागप्रतिमा
१०९ भी बिताकर पारणाके दिन अर्थात् नवमी या पूर्णमासीको पुनः पूर्वके समान पूजन करके तत्पश्चात् अपने घर जाकर और वहां अतिथिको आहारदान देकर जो भोजन करता है, उसके निश्चयसे उत्तम प्रोषधविधि होती है ॥ २८१-२८९ ॥
* जह उकस्सं तह मज्झिमं वि पोसहविहाणमुहिट। णवर विसेसो सलिलं छंडित्ता' वजए सेल ॥२९०॥ मुणिऊण गुरुवकज्ज सावज्जविवजिय णियारंभ ।
जइ कुणइ त पि कुज्जा सेस पुव्वं व णायव्वं ॥२९॥ जिस प्रकारका उत्कृष्ट प्रोषध विधान कहा गया है, उसी प्रकारका मध्यम प्रोषध विधान भी जानना चाहिए। केवल विशेषता यह है कि जलको छोड़कर शेष तीनों प्रकारके आहारका त्याग करना चाहिए ॥ २९० ॥ जरूरी कार्यको समझकर सावद्य-रहित अपने घरू आरम्भको यदि करना चाहे, तो उसे भी कर सकता है। किन्तु शेष विधान पूर्वके समान ही जानना चाहिए ॥ २९१॥
आयंबिल' णिव्वयडी' एयहाणं च एयभर वा।
जं कीरइ तं णेयं जहएणयं पोसहविहाणं ॥२९२॥ जो अष्टमी आदि पर्वके दिन आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, अथवा एकभक्तको करता है, उसे जघन्य प्रोषध विधान जानना चाहिए ॥२९२॥ (विशेषार्थ परिशिष्टमें देखो।)
सिराहाणुव्वट्टण-गंध-मल्लकेसाइदेहसंकप्पं ।
अण्णं पि रागहेउं विवजए पोसहदिणम्मि ॥२९॥ प्रोषधके दिन शिरसे स्नान करना, उवटना करना, सुगंधित द्रव्य लगाना, माला पहनना, बालों आदिका सजाना, देहका संस्कार करना, तथा अन्य भी रागके कारणोंको छोड़ देना चाहिए ॥ २९३ ॥
एवं चउत्थठाणं विवरिणयं पोसह समासेण ।
एत्तो कमेण सेसाणि सुणह संखेवो वोच्छं ॥२९॥ इस प्रकार प्रोषध नामका चौथा प्रतिमास्थान संक्षेपसे वर्णन किया। अब इससे आगे शेष प्रतिमा-स्थानोंको संक्षेपसे कहूंगा, सो सुनो ॥ २९४ ॥
सचित्तत्यागप्रतिमा जं वजिजइ हरिगं तुय-पत्त-पवाल-कंद-फल-बीयं । अप्पासुग च सलिलं सचित्तणिवित्ति सं ठाणं ॥२५॥
१ ब. छडित्ता । २ आयंबिल-अम्ल चतुर्थो रसः, स एव प्रायेण व्यंजने यत्र भोजने श्रोदन-कुल्माषसक्तुप्रभृतिके तदाचामाम्लम् । आयंविलमपि तिविहं उकिट-जहण्णा-मज्झिमदएहिं । तिविहं जं विउलपूवाइ पकप्पए तत्थ ॥१०२॥ मिय-सिंधव-सुंठि मिरीमेही सोवञ्चलं च विडलबो । हिंगुसुगंधिसु पाए पकप्पए साइयं वत्थु ॥१०॥ अभिधानराजेन्द्र । ३ ब. णिग्घियडी। ४ इ. भ. तय० ।
* मध्यमोऽपि भवेदेवं स विधाहारवर्जनम् ।
जलं मुक्त्वा जघन्यस्त्वेकभक्तादिरनेकधा ॥१७५॥ * स्नानमुद्वर्त्तनं गन्धं माल्यं चैव विलेपनम् ।
यच्चान्यद् रागहेतुः स्याद्वगं तत्प्रोषधोऽखिलम् ॥१७६॥ मूलं फलं च शाकादि पुष्पं बीजं करीरकम् । अप्रासुकं त्यजेन्नीरं सचित्तविरतो गृही ॥१७॥-गुण० श्राव०