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वसुनन्दि-श्रावकाचार
अण्णाणि एवमाईणि जाणि दुक्खाणि मणुयलोयम्मि ।
दीसंति ताणि पावइ वसणस्स फलेणिमो जीवो ॥१९॥ कोई एक मनुष्य पापरोग अर्थात् कोढसे पीड़ित होकर नगरसे बाहर किसी एकान्त प्रदेशमें सहाय-रहित होकर अकेला रहता है, वह अपने घरमे भी नही रहने पाता ॥ १८७ ॥ मैं प्यासा हूं और भूखा भी हूं; बच्चो, मुझे अन्न जल दो-खाने-पीनेको दो-इस प्रकार चिल्लाते हुए भी उसको कोई वचनसे भी आश्वासन तक नही देता है ॥ १८८ ॥ तब रोग-शोकसे भरा हुआ वह सब लोगोंको नाना प्रकारके कष्ट देकरके पीछे स्वयं दुःखसे मरता है। ऐसे असार मनुष्य जीवनको धिक्कार है ॥ १८९ ॥ इन उपर्युक्त दुःखों को आदि लेकर जितने भी दुःख मनुष्यलोकमे दिखाई देते है, उन सबको व्यसनके फलसे यह जीव पाता है ॥ १९०॥
देवगतिदुःख-वर्णन किंचुवसमेण पावस्स कह वि देवत्तणं वि संपत्तो।
तत्थ वि पावइ दुक्खं विसणज्जियकम्मपागेण ॥१९॥ यदि किसी प्रकार पापके कुछ उपशम होनेसे देवपना भी प्राप्त हुआ तो, वहांपर भी व्यसन-सेवनसे उपार्जित कर्मके परिपाकसे दुःख पाता है ॥ १९१ ॥
दट्टण महड्डोणं देवाणं ठिइज्जरिद्धिमाहप्पं । अप्पड्डियो विसूरइ माणसदुक्खेण डझंतो ॥१२॥ हा मणुयभवे उप्पज्जिऊण तव-संजमं वि लद्ध ण ।
मायाए जं वि कयं देवदुग्गयं तेण संपत्तो ॥१९३॥ देव-पर्यायमें महद्धिक देवोंकी अधिक स्थिति-जनित ऋद्धिके माहात्म्यको देखकर अल्प ऋद्धिवाला वह देव मानसिक दुःखसे जलता हुआ, विसूरता (झूरता) रहता है ॥ १९२ ॥ और सोचा करता है कि हाय, मनुष्य-भवमें भी उत्पन्न होकर और तप-संयमको भी पाकर उसमें मैंने जो मायाचार किया, उसके फलसे मैं इस देव-दुर्गतिको प्राप्त हुआ हूं, अर्थात् नीच जातिका देव हुआ हूं ॥ १९३ ॥
कंदप्प-किब्भिसासुर-वाहण-सम्मोह-देवजाईसु ।
जावजीवं णिवसइ विसहंतो माणसं दुक्खं ॥१९॥ कन्दर्प, किल्विषिक, असुर, वाहन, सम्मोहन आदि देवोंकी कुजातियोंमें इस प्रकार मानसिक दुःख सहता हुआ वह यावज्जीवन निवास करता है ॥ १९४ ॥
छम्मासाउयसेसे वत्थाहरणाई हुंति मलिणाई। पाऊण चवणकालं अहिययरं रुयइ सोगेण ॥१६५॥ हा हा कह णिल्लोए किमिकुलभरियम्मि अइदुगंधम्मि । एवमासं पह-रुहिराउलम्मि गब्भम्मि वसियव्वं ॥१९६॥ किं करमि' कत्थ वञ्चमि कस्स साहामि जामि के सरणं । ण वि अस्थि एत्थ बंधू जो मे धारेइ णिवडतं ॥१९७॥ वजाउहों' महप्पा एरावण-बाहणो सुरिंदो वि । जावज्जीव सो सेविप्रो वि ण धरेइमं तहवि ॥१९॥
३ इ. कं कप्पं, भ. बिजं कयं । २ इ. समोह । ३ नृलोके । ४ इ. करम्मि। ५ वज्रायुधः ।