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वसुनन्दि-श्रावकाचार
. जो सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध-बुद्धि जीव इन पंच उदुम्बर सहित सातों व्यसनोंका परित्याग करता है, वह प्रथम प्रतिमाधारी दर्शन-श्रावक कहा गया है ॥ २०५ ॥
एवं दंसणसावयठाणं पढम समासो भणियं ।
वयसावयगुणठाणं एत्तो विदियं पवक्खामि ॥२०६॥ इस प्रकार दार्शनिक श्रावकका पहला स्थान संक्षेपसे कहा। अब इससे आगे व्रतिक श्रावकका दूसरा स्थान कहता हूं ॥ २०६ ॥
द्वितीय व्रतप्रतिमा-वर्णन पंचेव अणुव्वयाई गुणब्बयाई हवंति पुण' तिरिण ।
सिक्खावयाणि चत्तारि जाण विदियम्मि ठाणम्मि ॥२०७॥ द्वितीय स्थानमे, अर्थात् दूसरी प्रतिमा पांचों ही अणुव्रत, तीन गुणव्रत, तथा चार शिक्षाव्रत होते है ऐसा जानना चाहिए ॥ २०७॥
पाणाइवायविरई सच्चमदत्तस्स वजणं चेव ।
थूलयड बंभचेर इच्छाए गंथपरिमाणं ॥२०॥ स्थूल प्राणातिपातविरति, स्थूल सत्य, स्थूल अदत्त वस्तुका वर्जन, स्थूल ब्रह्मचर्य और इच्छानुसार स्थूल परिग्रहका परिमाण ये पांच अणुव्रत होते हैं ॥ २०८ ॥
जे तसकाया जीवा पुवुटिठा ण हिंसियव्वा ते ।
एइ दिया वि णिक्कारणेण पढमं वयं थूलं ॥२०१॥ जो त्रसजीव पहले बतलाये गये है, उन्हे नहीं मारना चाहिए और निष्कारण अर्थात् विना प्रयोजन एकेन्द्रिय जीवोंको भी नही मारना चाहिए, यह पहला स्थूल अहिंसावत है ॥२०९।।
अलियं ण जंपणीयं पाणिबहकरं तु सञ्चवयणं पि ।
रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं ॥२०॥ रागसे अथवा द्वषसे झूठ वचन नहीं बोलना चाहिए और प्राणियोंका घात करनेवाला सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए, यह दूसरा स्थूल सत्यव्रत जानना चाहिए ॥ २१०॥
पुर-गाम-पट्टणाइसु पडियं णठं च णिहिय वीसरियं ।
परदव्वमगिरहंतस्स होइ थूलवयं तदियं ॥२१॥ पुर, ग्राम, पत्तन, क्षेत्र आदिमे पड़ा हुआ, खोया हुआ, रखा हुआ, भूला हुआ, अथवा रख करके भूला हुआ पराया द्रव्य नही लेनेवाले जीवके तीसरा स्थूल अचौर्यव्रत होता है ॥२१॥
पब्वेसु इस्थिसेवा अणंगकीडा सया विवजंतो। थूलयडबंभयारी जिणेहि भणियो पवयणम्मि ॥२२॥
ब. तद । (तह?) २ ब. बंभचेरो। ३ इ. हिंसयन्वा । १ इ. म. विड्यं, ब. बीयं ५ न.
तइयं।
+ पंचधाणुव्रतं यस्य त्रिविधं च गुणवतम् ।
शिक्षाव्रतं चतुर्धा स्यात्सः भवेद् व्रतिको यतिः ॥१३०॥ क्रोधादिनापि नो वाच्यं वचोऽसत्यं मनीषिणा । सत्यं तदपि नो वाच्यं यत्स्यात् प्राणिविघातकम् ॥१३॥ ग्रामे चतुःपथादौ वा विस्मृतं पतितं तम् ।
परदन्यं हिरण्यादि वज्यं स्तेयविवर्जिना ॥१३५॥ * सोसेवानंगरमणं यः पर्वणि परित्यजेत् ।
सः स्थूलमह्मचारी च प्रोक्तं प्रवचने जिनैः ॥१३६॥-गुण. श्राव.