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वसुनन्दि-श्रावकाचार लेती है और पुरुषको अस्थि-चर्म परिशेष करके, अर्थात् जब उसमें हाड़ और चाम ही अवशेष रह जाता है, तब उसको छोड़ देती है ॥८९॥ वह एक पुरुषके सामने कहती है कि तुम्हें छोड़कर अर्थात् तुम्हारे सिवाय मेरा कोई स्वामी नहीं है। इसी प्रकार वह अन्यसे भी कहती है और अनेक चाटुकारियां अर्थात् खुशामदी बाते करती है ॥९०॥ मानी, कुलीन और शूरवीर भी मनुष्य वेश्याम आसक्त होनेसे नीच पुरुषोंकी दासता (नौकरी या सेवा) को करता है और इस प्रकार वह कामान्ध होकर वेश्याओं के द्वारा किये गये अनेकों अपमानोंको सहन करता है ॥९१।। जो दोष मद्य और मांसके सेवनमें होते हैं, वे सब दोष वेश्यागमनमे भी होते हैं। इसलिए वह मद्य और मांस सेवनके पापको तो प्राप्त होता ही है, किन्तु वेश्या-सेवनके विशेष अधम पापको भी नियमसे प्राप्त होता है॥९२॥ वेश्या-सेवन-जनित पापसे यह जीव घोर संसार-सागरमें भयानक दुःखोंको प्राप्त होता है, इसलिए मन, वचन और कायसे वेश्याका सर्वथा त्याग करना चाहिए ॥९३॥
पारद्धिदोष-वर्णन सम्मत्तस्स पहाणो अणुकंवा वरिणो गुणो जम्हा । पारद्धिरमणसीलो सम्मत्तविराहो तम्हा ॥१४॥ दठूण मुक्ककेसं पलायमाणं तहा पराहुत्तं । रद धरियतिणं' सूरा कयापराहं वि ण हणंति ॥१५॥ णिचं पलायमाणो तिण'चारी तह णिरवराहो वि। कह णिग्घणो हणिज्जद्द पारण्णणिवासिणो वि मए ॥१६॥ गो-बंभणित्थिघायं परिहरमाणस्स होइ जइ धम्मो। सम्वेसि जीवाणं दयाए ता किं ण सो हुज्जा ॥१७॥ गो-बंभण-महिलाणं विणिवाए हवइ जह महापावं । तह इयरपाणिघाए वि होइ पावं ण संदेहो ॥१८॥ महु-मज्ज-मंससेवी पावइ पावं चिरेण जं घोरं । तं एयदिणे पुरिसो लहेइ पारद्धिरमणेण ॥१९॥ संसारम्मि अणंतं दुक्खं पाउणदि तेण पावेण ।
तम्हा विवज्जियव्वा पारद्धी देसविरएण ।।१००॥ सम्यग्दर्शनका प्रधान गुण यतः अनुकंपा अर्थात् दया कही गई है, अतः शिकार खेलनेवाला मनुष्य सम्यग्दर्शनका विरोधक होता है ॥९४॥ जो मुक्त-केश हैं, अर्थात् भयके मारे जिनके रोंगटे (बाल) खड़े हुए हैं, ऐसे भागते हुए तथा पराङमुख अर्थात् अपनी ओर पीठ किये हुए हैं और दांतोंमें जो तृण अर्थात् घासको दाबे हुए हैं, ऐसे अपराधी भी दीन जीवोंको शूरवीर पुरुष नहीं मारते है ॥९५॥ भयके कारण नित्य भागनेवाले, घास खानेवाले तथा निरपराधी और वनोंमें रहनेवाले ऐसे भी मृगोंको निर्दयी पुरुष कैसे मारते हैं ? (यह महा आश्चर्य है ! )॥९६॥ यदि गौ, ब्राह्मण और स्त्री-घातका परिहार करनेवाले पुरुषको धर्म होता है तो सभी जीवों की दयासे वह धर्म क्यों नहीं होगा ? ॥९७॥ जिस प्रकार गौ, ब्राह्मण और स्त्रियों के मारनेमें महापाप होता है, उसी प्रकार अन्य प्राणियोंके घातमें भी महापाप होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।९८॥ चिर काल तक मध, मद्य और मांसका सेवन करनेवाला जिस घोर पापको प्राप्त होता है, उस
१ म. दंतः। २ ब. तणं । ३ ब. तण । ४ झ. ब. हणिज्जा । ५ ब. हवइ । ६ ब, दयायि ।