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बंधादितत्त्व-वर्णन अरहंतभत्तियाइसु सुहोवोगेण पासवइ पुरणं ।
विवरीएण दु' पावं णिहिट्ठ जिणवरिंदेहि ॥४०॥ अरहंतभक्ति आदि पुण्यक्रियाओंमें शुभोपयोगके होनेसे पुण्यका आस्रव होता है और इससे विपरीत अशुभोपयोगसे पापका आस्रव होता है, ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेवने कहा है ॥४०॥
बंधतत्त्व-वर्णन 'अण्णोणाणुपवेसो जो जीवपएसकम्मखधाणं ।
सो पयडि-ट्ठिदि-अणुभव-पएसदो चउविहो बंधो ॥४१॥* जीवके प्रदेश और कर्मके स्कन्धोंका परस्परमें मिलकर एकमेक होजाना बंध कहलाता है। वह बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभव (अनुभाग) और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका होता है ॥४१॥
संवरतत्त्व-वर्णन सम्मत्तेहिं वएहिं य कोहाइकसायणिग्गहगुणेहि ।
जोगणिरोहेण तहा कम्मासवसंवरो होइ ॥४२॥+ सम्यग्दर्शन, व्रत और क्रोधादि कषायोंके निग्रहरूप गुणोंके द्वारा तथा योग-निरोधसे कर्मो का आस्रव रुकता है अर्थात् संवर होता है ॥४२॥
निर्जरातत्त्व-वर्णन सविवागा अविवागा दुविहा पुण निज्जरा मुणेयव्वा । सब्वेसिं जीवाणं पढमा विदिया तबस्सीणं ॥४३॥ जह रुद्धम्मि पवेसे सुस्सइ सरपाणियं रविकरहिं ।
तह आसवे णिरुद्ध तवसा कम्मं मुणेयव्वं ॥४४॥ सविपाक और अविपाकके भेदसे निर्जरा दो प्रकारको जाननी चाहिए। इनमेंसे पहली सविपाक निर्जरा सब संसारी जीवोंके होती है, किन्तु दूसरी अविपाक निर्जरा तपस्वी साधुओंके होती है। जिस प्रकार नवीन जलका प्रवेश रुक जानेपर सरोवरका पुराना पानी सूर्यकी किरणोंसे सूख जाता है, उसी प्रकार आस्रवके रुक जानेपर संचित कर्म तपके द्वारा नष्ट हो जाता है, ऐसा जानना चाहिए ॥४३-४४॥
१ब, उ । २ ध, अण्णुण्णा। * स्यादन्योऽन्यप्रदेशानां प्रवेशो जीवकर्मणोः ।
स बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावादिस्वभावकः ॥१७॥ + सम्यक्त्वव्रतैः कोपादिनिग्रहायोगरोधतः । कर्मास्रवनिरोधो यः सत्संवरः स उच्यते ॥१८॥ सविपाकाविपाकाथ निर्जरा स्याद द्विधादिमा । संसारे सर्वजीवानां द्वितीया सुतपस्विनाम् ॥१९॥-गुण० श्राव०