________________
वसुनन्दि-श्रावकाचार उक्त विवेचनसे यह बात भली भाँति सिद्ध हो जाती है कि 'ऐलक' पद भले ही अर्वाचीन हो, पर उसका मूल रूप 'अचेलक' शब्द बहुत प्राचीन है। लाटीसंहिताकारको या तो 'ऐलक' का मूलरूप समझमे नहीं श्रायाः या उन्होंने सर्वसाधारणमे प्रचलित 'ऐलक' शब्दको ज्यों का त्यो देना ही उचित समझा। इस प्रकार ऐलक शब्दका अर्थ नाममात्रका वस्त्रधारक अचेलक होता है और इसकी पुष्टि श्रा० समन्तभद्रके द्वारा ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके लिए दिये गये 'चेलखण्डधरः पदसे भी होती है।
निष्कर्ष उपर्युक्त सर्व विवेचनका निष्कर्ष यह है :
क्षल्लक-उस व्यक्तिको कहा जाता था, जो कि मुनिदीक्षाके अयोग्य कुलमे या शूद्र वर्णमें उत्पन्न होकर स्व-योग्य, शास्त्रोक्त, सर्वोच्च बतौका पालन करता था, एक वस्त्रको धारण करता था, पात्र रखता था, अनेक घरोंसे भिक्षा लाकर और एक जगह बैठकर खाता था, वस्त्रादिका प्रतिलेखन रखता था, कैंची या उस्तरेसे शिरोमुंडन कराता था। इसके लिए वीरचर्या, अातापनादि योग करने और सिद्धान्त ग्रन्थ तथा प्रायश्चित्तशास्त्रके पढनेका निषेध था।
ऐलक-मूलमें 'अचेलक' पद नग्न मुनियोंके लिए प्रयुक्त होता था। पीछे जब नग्न मुनियोके लिए निर्ग्रन्थ, दिगम्बर आदि शब्दोंका प्रयोग होने लगा, तब यह शब्द ग्यारहवीं प्रतिमा-धारक और नाममात्रका वस्त्र खड धारण करनेवाले उत्कृष्ट श्रावकके लिए व्यवहृत होने लगा। इसके पूर्व ग्यारहवीं प्रतिमाधारीका 'भिक्षुक' नामसे व्यवहार होता था। इस भिक्षुक या ऐलकके लिए लॅगोटी मात्रके अतिरिक्त सर्व वस्त्रोंके और पात्रोके रखनेका निषेध है। साथ ही मुनियोके समान खड़े-खड़े भोजन करने, केशलुञ्च करने और मयूरपिच्छिका रखनेका विधान है। इसे ही विद्वानोंने 'ईषन्मुनिः 'यति' आदि नामोंसे व्यवहार किया है।
समयके परिवर्तनके साथ शूद्रोको दीक्षा देना बन्द हुश्रा, या शूद्रोंने जैनधर्म धारण करना बन्द कर दिया, तेरहवीं शताब्दीसे लेकर इधर मुनिमार्ग प्रायः बन्द सा हो गया, धर्मशास्त्रके पठन-पाठनकी गुरु-परम्पराका विच्छेद हो गया, तब लोगोंने ग्यारहवीं प्रतिमाके ही दो भेद मान लिये और उनमेसे एकको क्षुल्लक और दूसरेको ऐलक कहा जाने लगा।
क्या अाजके उच्चकुलीन, ग्यारहवीं प्रतिमाधारक उत्कृष्ट श्रावकोंको 'क्षुल्लक' कहा जाना योग्य है ?