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वसुमन्दि-श्रावकाचार
चुल्लक शब्दका अर्थ अमरकोषमे क्षुल्लक शब्दका अर्थ इस प्रकार दिया है:
विवर्णः पामरो नीचः प्राकृतश्च पृथक्जनः ।
निहीनोऽपसदो जाल्मः क्षुल्लकश्चेतरश्च सः॥१६॥
. .. (दश नीचस्य नामानि ) अमर द्वि०का० शूदवर्ग । अर्थात्--विवर्ण, पामरे, नीच, प्राकृत जन, पृथक् जन, निहीन, अपसद, जाल्म, क्षुल्लक और इतर ये दश नीचके नाम हैं।
उक्त श्लोक शूद्रवर्गमे दिया हुआ है। अमरकोषके तृतीय कोडके नानार्थ वर्गमे भी 'स्वल्पेऽपि तुल्लकस्त्रिषु, पद पाया है, वहाँपर इसकी टीका इस प्रकार की है :
'स्वल्पे, अपि शब्दान्नीच-कनिष्ठ-दरिद्रष्वपिक्षुल्लकः' अर्थात्-स्वल्प, नीच, कनिष्ठ और दरिद्र के अर्थों में क्षुल्लक शब्दका प्रयोग होता है ।
'रभसकोषमे भी 'क्षुल्लकस्त्रिषु नीचेऽल्पे दिया है। इन सबसे यही सिद्ध होता है कि क्षुल्लक शब्दका - अर्थ नीच या हीन है।
__ प्रायश्चित्तचूलिकाके उपर्युक्त कथनसे भी इस बातकी पुष्टि होती है कि शूद्रकुलोत्पन्न पुरुषोंको क्षुल्लक दीक्षा दी जाती थी। तत्त्वार्थराजवार्तिक वगैरहमें भी महाहिमवान्के साथ हिमवान् पर्वतके लिए क्षुल्लक या क्षुद्र शब्दका उपयोग किया गया है, जिससे भी यही अर्थ निकलता है कि हीन या क्षुद्र के लिए क्षुल्लक शब्दका प्रयोग किया जाता था। श्रावकाचारोके अध्ययनसे पता चलता है कि श्रा० जिनसेनके पूर्व तक शूगोको दीक्षा देने या न देनेका कोई प्रश्न सामने नहीं था। जिनसेनके सामने जब यह प्रश्न आया, तो उन्होने अदीक्षाई
और दीक्षाई कुलोत्पन्नोंका विभाग किया और उनके पीछे होनेवाले सभी प्राचार्योंने उनका अनुसरण किया । प्रायश्चित्तचूलिकाकारने नीचकुलोत्पन्न होनेके कारण ही संभवतः आतापनादि योगका क्षुल्लकके लिए निषेध किया था, पर परवर्ती ग्रन्थकारोंने इस रहस्यको न समझनेके कारण सभी ग्यारहवीं प्रतिमा-धारकों के लिए अातापनादि योगका निषेध कर डाला । इतना ही नहीं, श्रादि पदके अर्थको और भी बढ़ाया और दिन प्रतिमा, वीरचर्या, सिद्धान्त ग्रन्थ और प्राचश्चित्तशास्त्रके अध्ययन तकका उनके लिए निषेध कर डाला। किसी-किसी विद्वान्ने तो सिद्धान्त ग्रन्थ श्रादिके सुननेका भी अनधिकारी घोषित कर दिया । यह स्पष्टतः वैदिक संस्कृतिका प्रभाव है, जहाँपर कि शूद्रोंको वेदाध्ययनका सर्वथा निषेध किया गया है, और उसके सुननेपर कानों में गर्म शीशा डालने का विधान किया गया है ।
क्षुल्लकोंको जो पात्र रखने और अनेक घरोंसे भिक्षा लाकर खानेका विधान किया गया है, वह भी संभवतः उनके शूद होनेके कारण ही किया गया प्रतीत होता है। सागारधर्मामृतमें ग्यारहवीं प्रतिमाधारी द्वितीयोत्कृष्ट श्राव के लिए जो 'आर्य' संज्ञा दी गई है, वह भी क्षुल्लकोके जाति, कुल श्रादिकी अपेक्ष हीनत्त्वका द्योतन करती है।
१ दिनपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेसु णस्थि अहियारो। सिद्धन्त-रहस्साण वि अझयणं देसविरदाण ॥३१२॥-वसु. उपा. श्रावको वीरचर्याहः-प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ॥५०॥-सागार०अ०७ २ नास्ति निकालयोगोऽस्य प्रतिमा चार्कसम्मुखा।
रहस्यग्रन्थ-सिद्धान्तश्रवणे नाधिकारिता ॥२४९॥-संस्कृत भावसंग्रह . ३ तद्वद् द्वितीयः किन्तवार्यसंज्ञो लुचत्यसौ कचान् ।
कौपीनमात्रयुग्धत्ते यतिवत्प्रतिलेखनम् ॥४॥-सागार० १०७