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वसुनन्दि-श्रावकाचार
१८-खुल्लक और ऐलक ऊपर प्रतिमाओंके वर्गीकरणमे बताया गया है कि स्वामी कार्तिकेय और समन्तभद्रने यद्यपि सीधे रूपमे ग्यारहवीं प्रतिमाधारीका 'भिक्षुक' नाम नहीं दिया है, तथापि उनके उक्त पदोंसे इस नामकी पुष्टि अवश्य होती है। परन्तु ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके दो भेद कबसे हुए और उन्हें 'क्षुल्लक' और 'ऐलक' कबसे कहा जाने लगा, इन प्रश्नोंका ऐतिहासिक उत्तर अन्वेषणीय है, अतएव यहाँ उनपर विचार किया जाता है :(१) श्राचार्य कुन्दकुन्दने सूत्रपाहुडमें एक गाथा दी है:
दुइयं च वुत्तलिंग उकिट्ट अवर सावयाणं च ।
भिक्खं भमेइ पत्तो समिदीभासेण मोणेण ॥२१॥ अर्थात् मुनिके पश्चात् दूसरा उत्कृष्टलिंग गृहत्यागी उत्कृष्ट श्रावकका है। वह पात्र लेकर ईर्यासमिति पूर्वक मौनके साथ मिक्षाके लिए परिभ्रमण करता है।
इस गाथामे ग्यारहवीं प्रतिमाघारीको 'उत्कृष्ट श्रावक' ही कहा गया है, अन्य किसी नामकी उससे उपलब्धि नहीं होती। हाँ, 'भिक्खं भमेइ पत्तो पदसे उसके 'भिक्षुक' नामकी ध्वनि अवश्य निकलती है।
(२) स्वामी कार्तिकेय और समन्तभद्रने भी ग्यारहवी प्रतिमाधारीके दो भेद नहीं किये है, न उनके लिए किसी नामकी ही स्पष्ट सज्ञा दी है। हाँ, उनके पदोसे भिक्षुक नामकी पुष्टि अवश्य होती है। इनके मतानुसार भी उसे गृहका त्याग करना आवश्यक है।
(३) श्राचार्य जिनसेनने अपने श्रादि पुराणमें यद्यपि कहीं भी ग्यारह प्रतिमाअोका कोई वर्णन नहीं किया है, परन्तु उन्होने ३८ वे पर्वमें गर्भान्वय क्रियाओंमे मुनि बननेके पूर्व 'दीक्षाद्य' नामकी क्रियाका जो वर्णन किया है, वह अवश्य ग्यारहवीं प्रतिमाके वर्णनसे मिलता-जुलता है । वे लिखते हैं :
त्यक्तागारस्य सदृष्टेः प्रशान्तस्य गृहीशिनः । प्राग्दीक्षोपयिकाकालादेकशाटकधारिणः ॥१५॥ यत्पुरश्चरणं दीक्षाग्रहणं प्रतिधार्यते ।
दीक्षायं नाम तज्ज्ञेयं क्रियाजातं द्विजन्मनः ॥१५९॥ अर्थात्-जिनदीक्षा धारण करनेके कालसे पूर्व जिस सम्यग्दृष्टि, प्रशान्तचित्त, गृहत्याग', द्विजन्मा और एक धोती मात्रके धारण करनेवाले गृहीशीके मुनिके पुरश्चरणरूप जो दीक्षा ग्रहण की जाती है, उस क्रियासमूहके करनेको दीक्षाद्य क्रिया जानना चाहिए। इसी क्रियाका स्पष्टीकरण प्रा० जिनसेनने ३६वे पर्वमे भी किया है :
त्यक्तागारस्य तस्यातस्तपोवनमुपेयुषः । एकशाटकधारित्वं प्राग्वद्दीक्षायभिष्यते ॥७७॥ इसमे 'तपोवनमुपेयुषः' यह एक पद और अधिक दिया है।
इस 'दीक्षाद्यक्रिया से दो बातोपर प्रकाश पड़ता है, एक तो इस बातपर कि उसे इस क्रिया करनेके लिए घरका त्याग आवश्यक है, और दूसरी इस बातपर कि उसे एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए। प्राचार्य समन्तभद्रके 'गृहतो मुनिवनमित्वा' पदके अर्थको पुष्टि 'त्यक्तागारस्य' और 'तपोवनमुपेयुष' पदसे और 'चेलखण्डधरः' पदके अर्थकी पुष्टि 'एकशाटकधारिणः पदसे होती है, अतः इस दीक्षाद्यक्रियाको ग्यारहवीं प्रतिमाके वर्णनसे मिलता-जुलता कहा गया है । . श्रा० जिनसेनने इस दीद्याद्यक्रियाका विधान दीक्षान्वय-क्रियाअोमे भी किया है और वहाँ बतलाया है कि जो मनुष्य अदीक्षार्ह अर्थात् मुनिदीक्षाके.अयोग्य कुलमें उत्पन्न हुए हैं, विद्या और शिल्पसे श्राजीविका करते हैं, उनके उपनीति आदि संस्कार नहीं किये जाते। वे अपने पदके योग्य व्रतोंको और उचित लिंगको धारण करते हैं तथा संन्याससे मरण होने तक एक धोती-मात्रके धारी होते हैं। वह वर्णन इस प्रकार है:
अदीचाहे कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः। एतेषामुपनीत्यादिसंस्कारो नाभिसम्मतः ॥१७॥