Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 68
________________ ग्रन्थ-विषय-सूची ३८७ ३६० : : १३६-कारापकका स्वरूप ११४०-इन्द्रका स्वरूप १४१-प्रतिमाका स्वरूप १४२-सरस्वती या श्रुतदेवीकी स्थापनाका विधान १४३–अथवा पुस्तकोंपर जिनागमका लिखाना ही शास्त्रपूजा है ... १४४-प्रतिष्ठा विधिका विस्तृत वर्णन १४५-स्थापना पूजनके पाँचवे अधिकारके अन्तमे कहनेका निर्देश १४६ -द्रव्यपूजाके स्वरूप और उसके सचित्त आदि तीन भेदोंका वर्णन १४७-क्षेत्रपूजाका स्वरूप १४८-कालपूजाका स्वरूप १४६-भावपूजाका स्वरूप १५०-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान भी भावपूजाके ही अन्तर्गत है १५१-पिण्डस्थ ध्यानका विस्तृत वर्णन . १५२-पदस्थ ध्यानका स्वरूप १५३-रूपस्थ ध्यानका विस्तृत वर्णन १५४-रूपातीत ध्यानका स्वरूप १५५-भावपूजाका प्रकारान्तरसे वर्णन १५६-छह प्रकारकी पूजनका उपसहार और प्रतिदिन श्रावकको करनेका उपदेश ... १५७-पूजनका विस्तृत फल वर्णन . १५८-धनियाके पत्ते बराबर जिनभवन बनाकर सरसोके बराबर प्रतिमा स्थापनका फल १५६-बड़ा जिनमन्दिर और बडी जिनप्रतिमाके निर्माणका फल १६० -जलसे पूजन करनेका फल १६१-चन्दनसे पूजन करनेका फल १६२-अक्षतसे पूजन करनेका फल १६३-पुष्पसे पूजन करनेका फल १६४-नैवेद्यसे पूजन करनेका फल १६५-दीपसे पूजन करनेका फल १६६-धूपसे पूजन करनेका फल १६७-फलसे पूजन करने का फल १६८-घंटा दानका फल १६६-छत्र दानका फल १७०-चामरदानका फल १७१-जिनाभिषेकका फल १७२-ध्वजा, पताका चढ़ानेका फल -१७३-पूजनके फलका उपसंहार १७४---श्रावक धर्म धारण करनेका फल स्वर्गलोकमे उत्पत्ति है, वहाँ उत्पन्न होकर वह क्या देखता, सोचता और आचरण करता है, इसका विशद वर्णन . १७५-स्वर्ग लोककी स्थिति पूरी करके वह चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ मनुष्योंमे उत्पन्न होता है १७६-वह मनुष्य भवके श्रेष्ठ सुखोंको भोगकर और किसी निमित्तसे विरक्त हो __ दीक्षित होकर अणिमादि अष्ट ऋद्धियोंको प्राप्त करता है ३६१ ३६२ ३६३-४४६ ४४७ ४४८-४५१ ૪૨ ४५३-४५५ ४५६-४५७ ४५८ ४५६-४६३ ४६४ ४६५-४७५ ४७६ ४७७ ४७८ ४७६-४६३ ४८१ ४८२ ४८३ ४८३ ४८५ ४८६ ४८७ ४८८ ४८६ ४६० ४६० ४६२ ४६३ ४६४-५०८ ५०६ १०

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