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श्रावकधर्मका क्रमिक विकास
५३ श्रा० अमितगतिने गुणव्रत तथा शिक्षा-व्रतोंके नामोंमें उमास्वातिका और स्वरूप वर्णनमें सोमदेवका अनुसरण किया है । पूजनके वर्णनमें देवसेनका अनुसरण करते हुए भी अनेक ज्ञातव्य बातें कहीं हैं। निदानके प्रशस्त अप्रशस्त भेद, उपवासकी विविधता, आवश्यकोंमे स्थान, श्रासन, मुद्रा, काल आदिका वर्णन अमितगतिके उपासकाध्ययनकी विशेषता है । यदि एक शब्दमें कहा जाय, तो अपने पूर्ववर्ती उपासकाचारों का संग्रह और उनमे कहनेसे रह गये विषयोंका प्रतिपादन करना ही अमितगतिका लक्ष्य रहा है।
। आचार्य अमृतचन्द्र प्राचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंके अमर टीकाकार अमृतचन्द्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामके एक स्वतंत्र ग्रन्थकी रचना की है। इसमें उन्होंने बताया है कि जब यह चिदात्मा पुरुष अचल चैतन्यको प्राप्त कर लेता है तब वह परम पुरुषार्थ रूप मोक्षकी सिद्धिको प्राप्त हो जाता है। इस मुक्तिको प्राप्तिका उपाय बताते हुए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनका बहुत सुन्दर विवेचन किया। पुनः सम्यग्ज्ञानकी श्रागधनाका उपदेश दिया। तदनन्तर सम्यक्चारित्रकी व्याख्या करते हुए हिंसादि पापोंकी एक देश विरतिमे निरत उपासकका वर्णन किया है। इस प्रकरणमे अहिंसाका जो अपूर्व वर्णन किया गया है, वह इसके पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थमें दृष्टिगोचर नहीं होता। सर्व पापोकी मूल हिंसा है, अतः उसीके अन्तर्गत सर्व पापोंको घटाया गया है और बताया गया है कि किस प्रकार एक हिंसा करे और अनेक हिंसाके फल को प्राप्त हो, अनेक हिंसा करें और एक हिंसाका फल भोगे । किसीकी अल्प हिंसा महाफलको और किसीकी महाहिसा अल्प फलको देती है। इस प्रकार नाना विकल्पोंके द्वारा हिंसा-अहिसाका विवेचन उपलब्ध जैनवाङ्मयमें अपनी समता नहीं रखता। इन्होंने हिंसा त्यागने के इच्छुक पुरुषोंको सर्व प्रथम पाँच उदुम्बर और तीन मकारका परित्याग अावश्यक बताया और प्रबल युक्तियोसे इनका सेवन करनेवालोंको महाहिंसक बताया। अन्तमें आपने यह भी कहा कि इन अाठ दुस्तर पापोका परित्याग करने पर ही मनुष्य जैनधर्म-धारण करनेका पात्र हो सकता है। धर्म, देवता या अतिथिके निमित्त की गई हिंसा हिंसा नहीं, इस मान्यताका प्रबल युक्तियोंसे अमृतचन्द्रने खंडन किया है। पुनः तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार शेष अणुव्रत, गुणवत और शिक्षाबतोका सातिचार वर्णन किया है। अन्तमे तप, भावना और परीषहादिकका वर्णन कर ग्रन्थ पूर्ण किया है।
आचार्य वसुनन्दि श्रा० वसुनन्दिने अपने उपासकाध्ययनमै किन किन नवीन बातों पर प्रकाश डाला है, यह पहले 'वसुनन्दि श्रावकाचारकी विशेषताएँ, शीर्षकमे विस्तारसे वताया जा चुका है। यहाँ संक्षेपमें इतना जान लेना चाहिए कि इन्होंने ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर श्रावकधर्मका प्रतिपादन किया है उसमें सर्व प्रथम दार्शनिक श्रावकको सप्तव्यसनका त्याग अावश्यक बताया। व्यसनोंके फलका विस्तारसे वर्णन किया। बारह व्रतोंका
और ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन प्राचीन परम्पराके अनुसार किया, जिन पूजा, जिन-बिम्ब-प्रतिष्ठाका निरूपण किया। व्रतोंका विधान किया और दानका पाँच अधिकारों द्वारा विस्तृत विवेचन किया। सक्षेपमें अपने समयके लिए श्रावश्यक सभी तत्वोंका समावेश अपने प्रस्तुत ग्रन्थमें किया है।
पण्डित-प्रवर आशाधर अपने पूर्ववर्ती समस्त दि० श्वे० श्रावकाचाररूप समुद्रका मथन कर आपने 'सागारधामृत' रचा है। किसी भी प्राचार्य द्वारा वर्णित कोई भी श्रावकका कर्तव्य इनके वर्णनसे छुटने नहीं पाया है। आपने श्रावक
१ मद्यं मांस क्षौद्र पचोदुम्बरफलानि यत्नेन ।
हिंसाब्युपरतकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ॥६१॥ २ अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवयं । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥५४॥ --पुरुषार्थसिद्धयुपाय