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वसुनन्दि-श्रावकाचार समान है। भेद केवल शिक्षाबतोके नामोमे है। यदि दोनो धाराओंको अर्ध-सत्यके रूपमे मान लिया जाय तो उक्त समस्याका हल निकल आता है। अर्थात् नं. १ के श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रमेंके सामायिक और प्रोषधोपवास, ये दो शिक्षाबत ग्रहण किये जावें, तथा नं.२ के भावकप्रतिक्रमणसूत्रसे भोगपरिमाण और उपभोग परिमाण ये दो शिक्षाबत ग्रहण किये जावें। ऐसा करनेपर शिक्षाबतोके नाम इस प्रकार रहेगे-१ सामायिक, २ प्रोषधोपवास, ३ भोगपरिमाण और ४ उपभोगपरिमाण । इनमेसे प्रथम शिक्षाव्रतके आधारपर तीसरी प्रतिमा है और द्वितीय शिक्षाव्रतके आधारपर चौथी प्रतिमा है, इसका विवेचन हम पहले कर आये हैं।
उक्त निर्णयके अनुसार तीसरा शिक्षाबत भोगपरिमाण है। भोग्य अर्थात् एक बार सेवनमे आनेवाले पदार्थोंमे प्रधान भोज्य पदार्थ हैं । भोज्य पदार्थ दो प्रकारके होते हैं-सचित्त और अचित्त । साधुत्व या सन्यास की ओर अग्रसर होनेवाला श्रावक जीवरक्षार्थ और रागभावके परिहारार्थ सबसे पहिले सचित्त पदार्थोंके खानेका पावजीवनके लिए त्याग करता है और इस प्रकार वह सचित्तत्याग नामक पाँची प्रतिमाका धारी कहलाने लगता है। इस प्रतिमाका धारी सचित्त जलको न पीता है और न स्नान करने या कपड़े धोने श्रादिके काममें ही लाता है।
उपरि-निर्णीत व्यवस्थाके अनुसार चौथा शिक्षाबत उपभोगपरिमाण स्वीकार किया गया है। उपभोग्य पदार्थों में सबसे प्रधान वस्तु स्त्री है, अतएव वह दिनमें स्त्रीके सेवनका मन, वचन, कायसे परित्याग कर देता है यद्यपि इस प्रतिमाके पूर्व भी वह दिनमै स्त्री सेवन नहीं करता था, पर उससे हँसी-मजाकके रूपमे जो मनोविनोद कर लेता था, इस प्रतिमामे आकर उसका भी दिनमें परित्याग कर देता है और इस प्रकार वह दिवामैथुनत्याग नामक छठी प्रतिमाका धारी बन जाता है। इस दिवामैथुनत्यागके साथ ही वह तीसरे शिक्षाव्रतको भी यहाँ बढ़ाने का प्रयत्न करता है और दिनमे अचित्त या प्रासुक पदार्थोके खानेका व्रती होते हुए भी रात्रि कारित और अनुमोदनासे भी रात्रिभुक्तिका सर्वथा परित्याग कर देता है और इस प्रकार रात्रिभुक्ति-त्याग नामसे प्रसिद्ध और अनेक प्राचायोंसे सम्मत छठी प्रतिमाका धारी बन जाता है। इस प्रतिमाधारीके लिए दिवा-मैथुन त्याग और रात्रि-भुक्ति त्याग ये दोनों कार्य एक साथ आवश्यक है, इस बातकी पुष्टि दोनों परम्पराओंके शास्त्रोसे होती है। इस प्रकार छठी प्रतिमाका अाधार रात्रिभुक्ति-परित्यागकी अपेक्षा भोगविरति और दिवा-मैथुन-परित्यागकी अपेक्षा उपभोगविरति ये दोनोंही शिक्षाव्रत सिद्ध होते हैं।
सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। छठी प्रतिमामे स्त्रीका परित्याग वह दिनमे कर चुका है, पर वह स्त्रीके अंगको मलयोनि, मलबीज, गलन्मल और पूतगन्धि आदिके स्वरूप देखता हुअा रात्रिको भी उसके सेवनका सर्वथा परित्यागकर पूर्ण ब्रह्मचारी बन जाता है, और इस प्रकार उपभोगपरिमाण नामक शिक्षाव्रतको एक कदम और भी ऊपर बढ़ाता है। ___उपर्युक्त विवेचनके अनुसार पाँचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमामें श्रावकने भोग और उपभोगके प्रधान साधन सचित्त भोजन और स्त्रीका सर्वथा परित्याग कर दिया है। पर अभी वह भोग और उपभोगकी अन्य वस्तुएँ महल-मकान, बाग-बगीचे और सवारी आदिका उपभोग करता ही है। इनसे भी विरक्त होनेके लिए वह विचारता है कि मेरे पास इतना धन-वैभव है, और मैंने स्त्री तकका परित्याग कर दिया है। अब 'स्त्रीनिरीहे कुतः धनस्पृहा' की नीतिके अनुसार मुझे नवीन धनके उपार्जनकी क्या आवश्यकता है ? बस, इस भावनाकी प्रबलताके कारण वह असि, मषि, कृषि, वाणिज्य आदि सर्व प्रकारके श्रारम्भोका परित्याग कर प्रारम्भत्याग नामक आठवीं प्रतिमाका धारी बन जाता है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि इस प्रतिमामें व्यापारादि श्रारम्भोंके स्वयं न करनेका ही त्याग होता है, अतः पुत्र, भृत्य श्रादि जो पूर्वसे व्यापारादि कार्य करते चले श्रा रहे हैं, उनके द्वारा वह यतः करानेका त्यागी नहीं है, अतः कराता रहता है। इस बातकी पुष्टि प्रथम तो श्वे०
आगमोंमें वर्णित नवीं प्रतिमाके 'पेस परिन्नाए' नामसे होती है, जिसका अर्थ है कि वह नवीं प्रतिमामें श्राकर प्रेष्य अर्थात् भृत्यादि वर्गसे भी श्रारम्भ न करानेकी प्रतिज्ञा कर लेता है। दूसरे, दशवी प्रतिमाका नाम अनुमति-स्याग है। इस प्रतिमाका धारी श्रारम्भादिके विषयमें अनुमोदनाका भी परित्याग कर देता है। यह अनुमति पद अन्त दीपक है, जिसका यह अर्थ होता है कि दशवी प्रतिमाके पूर्व वह नवीं प्रतिमाम प्रारम्भादिका कारितसे