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श्रावक-धर्मका क्रमिक विकास ___अन्तमे उपासकाध्ययनका उपसंहार करते हुए प्रकीर्णक प्रकरण द्वारा अनेक अनुक्त या दुरुक्त बातोका भी स्पष्टीकरण किया गया है। सोमदेवके इस समुच्चय उपासकाध्ययनको देखते हुए निःसन्देह कहा जा सकता है कि यह सचमुचमें उपासकाध्ययन है और इसमे उपासकोंका कोई कर्तव्य कहनेसे नहीं छोड़ा गया है। केवल श्रावक-प्रतिमाओंका इतना संक्षिप्त वर्णन क्यों किया, यह बात अवश्य चित्तको खटकती है।
आचार्य देवसेन श्रा० देवसेनने अपने भावसंग्रह नामक ग्रन्थमे पाँचवें गुणस्थानका वर्णन करते हुए श्रावक धर्मका विस्तृत विवेचन किया है । इन्होने भी सोमदेवके समान ही पाँच उदुम्बर और मद्य, मांस, मधुके त्यागको अाठ मूलगुण माना है। पर गुणव्रत और शिक्षाव्रतोके नाम कुन्दकुन्दके समान ही बतलाये हैं।
यद्यपि श्रा० देवसेनने पूरी २५० गाथाओंमें पाँचवें गुणस्थानका वर्णन किया है, पर अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाबतका वर्णन एक-एक ही गाथामें कर दिया है, वह भी श्रा० कुंदकुंदके समान केवल नामोंको ही गिनाकर । ऐसा प्रतीत होता है मानो इन्हें बारह व्रतोंका अधिक वर्णन करना अभीष्ट नहीं था। ऐसा करनेका कारण यह प्रतीत होता है कि अन्य प्राचार्योंने उनपर पर्याप्त लिखा है, अन्तः उन्होंने उनपर कुछ और लिखना व्यर्थं समझा। इन्होने ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन करना तो दूर रहा, उनका नामोल्लेख तक भी नहीं किया है, न सप्त व्यसनों, बारह व्रतोंके अतीचारोंका ही कोई वर्णन किया है। संभवतः अपने ग्रन्थ 'भावसंग्रह' इस नामके अनुरूप उन्हें केवल भावोंका ही वर्णन करना अभीष्ट रहा हो, यही कारण है कि उन्होंने गृहस्थोंके पुण्य, पाप और धर्मध्यानरूप भावोंका खूब विस्तारसे विचार किया है। इस प्रकरणमें उन्होंने यह बताया है कि गृहस्थके निरालंब ध्यान संभव नहीं, अतः उसे सालंब ध्यान करना चाहिये। सालंब ध्यान भी गृहस्थके सर्वदा संभव नहीं हैं, अतः उसे पुण्य-वर्धक कार्य, पूजा, व्रत-विधान उपवास और शीलका पालन करना चाहिए, तथा चारो प्रकारका दान देते रहना चाहिए। अपने इस वर्णनमें उन्होंने देवपूजापर खास जोर दिया है और लिखा है कि सम्यग्दृष्टिका पुण्य मोक्षका कारण होता है अतः उसे यत्नके साथ पुर यका उपार्जन करना चाहिए। पूजाके अभिषेकपूर्वक करनेका विधान किया है।
१ महुमज्जमंसविरई चारो पण उंबराण पंचाहं ।
अछेदे मूलगुणा हवंति फुडु देसविरयम्मि ॥३५६॥-भावसंग्रह २ देखो-भावसं० गा० नं० ३५४-३५५, ३ जो भणइ को वि एवं अस्थि गिहत्थाण णिच्चलं झाणं । सुद्धं च णिरालंबं ण मुणइ सो आयमो जइणो ॥३२॥ तम्हा सो सालंबं झायउ माणं पि गिहबई णिच्चं । पंचपरमेडिरूवं अहवा मंतक्खरं तेसिं ॥३८॥ ४ इय णाऊण विसेसं पुण्णं आयरइ कारणं तस्स । पावहणं जाम सयलं संजमयं अप्पमत्तं च ॥४८७॥ भावह अणुब्वयाई पालह सीलं च कुणह उपवासं ।
पम्वे पव्वे णियमं दिजह अणवरह दाणाइं ॥४८॥ ५ तम्हा सम्मादिट्ठी पुण्णं मोक्खस्स कारणं हवइ ।
इय णाऊण गिहत्थो पुण्णं चायरड जत्तेण ॥४२॥ पुण्णस्स कारणं फुड पढमं ता हवइ देवपूया य । कायग्वा भत्तीए सावयवग्गेण परमाए ॥४२५||-भावसंग्रह