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श्रावक-धर्मका क्रमिक विकास आठ मूलगुणोंके पश्चात् श्रावकोके बारह उत्तर गुणोंका वर्णन किया गया है। श्रावकोंके उत्तर गणोंकी संख्याका ऐसा स्पष्ट उल्लेख इनके पूर्ववर्ती ग्रन्थोंमें देखनेमे नहीं आया। सोमदेवने पाँच अणुव्रतोंका वर्णन कर पाँचों पापोंमें प्रसिद्ध होनेवाले पुरुषों के चरित्रोका चित्रण किया और अहिंसाव्रतके रक्षार्थ रात्रिभोजनके परिहारका, भोजनके अन्तरायोका, और अभक्ष्य वस्तुओंके सेवनके परित्यागका वर्णन किया । पुनः मैत्री, प्रमोद
आदि भावनाओंका वर्णन कर पुण्य-पापका प्रधान कारण परिणामोंको बतलाते हुए मन-वचन-काय सम्बन्धी अशुभ क्रियाअोके परित्यागका उपदेश दिया। इसी प्रकरणमे उन्होंने यज्ञोंमे पशुबलिकी प्रवृत्ति कबसे कैसे प्रचलित हुई इसका भी सविस्तर वर्णन किया । अन्तमै प्रत्येक व्रतके लौकिक लाभोको बताया, जो कि उनकी लोकसग्राहक मनोवृत्तिका ज्वलंत उदाहरण है। इसी आश्वासमे दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्डवतरूप तीनो गुणव्रतोंका वर्णन किया है, जो कि अत्यन्त संक्षिप्त होते हुए भी अपने आपमे पूर्ण और अपूर्व है।
आठवें श्राश्वासमै शिक्षाव्रतों का वर्णन किया गया है, जिसमे से बहु भाग स्थान सामयिक-शिक्षाबत के वर्णन ने लिया है। सोमदेव ने प्राप्तसेवा या देवपूजा को सामायिक कहा है। अतएव उन्होंने इस प्रकरण मे स्नपन (अभिषेक) पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान और श्रुतस्तव इन छह कर्तव्योंका करना आवश्यक बताकर उनका खूब विस्तारसे वर्णन किया है, जो कि अन्यत्र देखनेको नहीं मिलेगा। यहाँ यह एक विचारणीय बात है कि जब स्वामी समन्तभद्ने देवपूजाको वैयावृत्त्य नामक चतुर्थ शिक्षाव्रतके अन्तर्गत कहा है, तब सोमदेवसूरिने उसे सामायिक शिक्षाव्रतके अन्तर्गत करके एक नवीन दिशा विचारकोंके सामने प्रस्तुत की है। श्रा० जिनसेनने इज्याओंके अनेक भेद करके उनका विस्तृत वर्णन किया है पर जहाँ तक मैं समझता हूँ उन्होंने देवपूजाको किसी शिक्षाव्रतके अन्तर्गत न करके एक स्वतन्त्र कर्तव्यके रूपसे उसका प्रतिपादन किया है। देवपूजाको वैयावृत्यके भीतर कहनेकी श्रा० समन्तभद्रकी दृष्टि स्पष्ट है, वे उसे देव-वैयावृत्य मानकर तदनुसार उसका प्रतिपादन कर रहे हैं। पर सोमदेवसूरिने सामायिक शिक्षाव्रतके भीतर देवपूजाका वर्णन क्यो किया, इस प्रश्नके तलमें जब हम प्रवेश करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य मतावलम्बियोंमै प्रचलित त्रिसन्ध्या-पूजनका समन्वय करनेके लिए मानों उन्होंने ऐसा किया है, क्योंकि सामायिकके त्रिकाल करनेका विधान सदासे प्रचलित रहा है। श्रा० समन्तभद्रने सामायिक प्रतिमाके वर्णनमें 'त्रिसन्ध्यमभिवन्दी' पद दिया है, ऐसा प्रतीत होता है कि सोमदेवसरिने उसे ही पल्लवित करके भावपूजनकी प्रधानतासे गृहस्थके नित्य-नियम में प्रचलित षडावश्यकोंके अन्तर्गत माने जानेवाले सामायिक और वन्दना नामके दो आवश्यकों को एक मान करके ऐसा वर्णन किया है।।
पूजनके विषयमें दो विधियाँ सर्वसाधारणमें सदासे प्रचलित रही हैं-एक तदाकार मूर्तिपूजा और दूसरी अतदाकार सांकल्पिक पूजा। प्रथम प्रकारमें स्नपन और अष्टद्रव्यसे अर्चन प्रधान है, तब द्वितीय प्रकारमें अपने आराध्य देवकी आराधना-उपासना या भावपूजा प्रधान है। तीनों संध्याएँ सामायिकका काल मानी गई हैं, उस समय गृहस्थ गृहकार्योंसे निर्द्वन्दू होकर अपने उपास्य देवकी उपासना करे, यही उसका सामायिक शिक्षावत है। श्रा० सोमदेव त्रैकालिक सामायिककी भावना करते हुए कहते हैं:
प्रातर्विधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्याह्नसन्निधिरयं मुनिमाननेन ।
सायंतनोऽपि समयो मम देव यायान्नित्यं त्वदाचरणकीर्तनकामितेन ॥ अर्थात्-हे देव, मेरा प्रातःकालका समय तेरे चरणारविन्दके पूजनके द्वारा, मध्याह्नकाल मुनिजनोके सम्मानके द्वारा और सायतन समय तेरे श्राचरणके कीर्तन द्वारा व्यतीत होवे।
१प्राप्तसेवोपदेशः स्यात्समयः समयार्थिनाम् ।
नियुक्तं तत्र यत्कर्म तत्सामायिकमूचिरे ॥-यश० प्रा०८ २ स्नपनं पूजन स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः।
षोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ॥-यश० प्रा०८