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श्रावक-धर्मका क्रमिक विकास गोचर नहीं हुआ, क्योकि स्वदारसन्तोषीके लिए तो दोनों ही परस्त्रियाँ हैं। अतः उन्होंने उन दोनोंके स्थानपर एक इत्वरिकागमनको रखकर 'विटत्व' नामक एक और अतीचारकी स्वतंत्र कल्पना की, जो कि ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचार होनेके सर्वथा उपयुक्त है।
श्रावकधर्मके प्रतिपादन करनेवाले श्रादिके दोनों ही प्रकारोंको हम रत्नकरण्डकमे अपनाया हुआ देखते हैं, तथापि ग्यारह प्रतिमाओंका ग्रन्थके सबसे अन्तमे वर्णन करना यह बतलाता है कि उनका झुकाव प्रथम प्रकारकी अपेक्षा दूसरे प्रतिपादन-प्रकारकी ओर अधिक रहा है।
अर्हत्पूजनको वैयावृत्त्यके अन्तर्गत वर्णन करना रत्नकरण्डककी सबसे बड़ी विशेषता है। इसके पूर्व पूजनको श्रावक-व्रतोंमे किसीने नहीं कहा है। सम्यक्त्वके श्राठ अंगोंमें, पाँच अणुव्रतोमे, पाँच पापोंमें और चारो दानोंके देनेवालोंमे प्रसिद्धिको प्राप्त करनेवालोंके नामोंका उल्लेख रत्नकरण्डककी एक खास विशेषता है, जो कि इसके पूर्वतक किसी ग्रन्थमें दृष्टिगोचर नहीं होती। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी समन्तभद्रने श्रावक-धर्मको पर्याप्त पल्लवित और विकसित किया और उसे एक व्यवस्थित रूप देकर भविष्यको पीढ़ीके लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया।
आचार्य जिनसेन
स्वामिसमन्तभद्रके पश्चात् श्रावकाचारका विस्तृत वर्णन जिनसेनाचार्यके महापुराणमें मिलता है। जिनसेनने ही ब्राह्मणोकी उत्पत्तिका आश्रय लेकर दीक्षान्वय आदि क्रियाओंका बहुत विस्तृत वर्णन किया है और उन्होंने ही सर्वप्रथम पक्ष, चर्या और साधनरूपसे श्रावकधर्मका प्रतिपादन किया है, जिसे कि परवर्ती प्रायः सभी श्रावकाचार-रचयिताअोने अपनाया है। प्रा. जिनसेनने इन नाना प्रकारकी क्रियाओंका और उनके मंत्रादिकोंका वर्णन कहाँ से किया, इस बातको जानने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं हैं। हाँ, स्वयं उन्हींके
उल्लेखोंसे यह अवश्य ज्ञात होता है कि उनके सामने कोई उपासकसूत्र या इसी नामका कोई ग्रन्थ अवश्य था, जिसका एकाधिक बार उल्लेख उन्होंने श्रादिपुगणके ४०वें पर्वमे किया है। संभव है, उसीके श्राधारपर उन्होंने पक्ष, चर्या, साधनरूपसे श्रावकधर्मके प्रतिपादन करनेवाले तीसरे प्रकारको अपनाया हो। इन्होंने बारह व्रतोंके नाम आदिमें तो कोई परिवर्तन नहीं किया है, पर अाठ मूलगुणोमें मधुके स्थानपर छूतका त्याग श्रावश्यक बताया है। इस द्यूतको यदि शेष व्यसनोंका उपलक्षण मानें, तो यह अर्थ निकलता है कि पाक्षिक श्रावकको कमसे कम सात व्यसनोंका त्याग और श्राठ मूलगुणोंका धारण करना अत्यन्त श्रावश्यक है। संभवतः इसी तर्कके बलपर पं० अाशाधरजी श्रादिने पाक्षिक श्रावकके उक्त कर्तव्य बताये हैं। जिनसेनके पूर्व हम किसी
आचार्यको व्यसनोंके त्यागका उल्लेख करते नहीं पाते, इससे पता चलता है कि समन्तभद्रके पश्चात् और जिनसेनके पूर्व लोगोमे सप्तव्यसनोंकी प्रवृत्ति बहुत जोर पकड़ गई थी, और इसलिए उन्हें उसका निषेध यथास्थान करना पड़ा। श्रा०जिनसेनने पूजाको चौथे शिक्षाव्रतके भीतर न मानकर गृहस्थका एक स्वतंत्र कर्तव्य माना और उसके नित्यमह, आष्टाह्निकमह, चतुर्मुखमह, महामह आदि भेद करके उसके विभिन्न काल और अधिकारी घोषित किये। जिनचैत्य, जिनचैत्यालय श्रादिके निर्माणपर भी जिनसेनने ही सर्वप्रथम जोर दिया है । हालाँकि, रविषेणाचार्य आदिकने अपने पद्मपुराण आदि ग्रन्थों में पूजन-अभिषेक आदिका यथास्थान वर्णन किया है, पर उनका व्यवस्थित रूप हमे सर्वप्रथम आदिपुराणमे ही दृष्टिगोचर होता है। वर्तमानमे उपलब्ध गर्भाधानादि यावन्मात्र सस्कारों और क्रियाकांडोके प्रतिष्ठापक जिनसेन ही माने जाते हैं पर वे स्वयं अविद्धकर्णा थे अर्थात् उनका कर्णवेधन संस्कार नहीं हुआ था, यह जयधवलाकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है।
__ आचार्य सोमदेव प्रा० सोमदेवने अपने प्रसिद्ध और महान् ग्रन्थ यशस्तिलकके छठे, सातवें और आठवें आश्वासमें श्रावकधर्मका बहुत विस्तारसे वर्णन किया है और इसलिए उन्होंने स्वयं ही उन आश्वासोंका नाम 'उपासका