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श्रावक-धर्मका क्रमिक विकास गृहस्थीके किसी भी कार्यमे अनुमतिके देनेका निषेध किया है। उद्दिष्टाहारविरतके लिए याचना-रहित और नवकोटि-विशुद्ध योग्य भोज्यके । लेनेका विधान किया गया है। स्वामिकार्तिकेयने ग्यारहवीं प्रतिमाके भेदोंका कोई उल्लेख नहीं किया है जिससे पता चलता है कि उनके समय तक इस प्रतिमाके कोई भेद नहीं हुए थे। इस प्रकार दि० परम्परामे सर्वप्रथम हम स्वामिकार्तिकेयको श्रावक धर्मका व्यवस्थित प्ररूपण करनेवाला पाते हैं।
आचार्य उमास्वाति स्वामिकार्तिकेयके पश्चात् श्रावक-धर्मका वर्णन उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें दृष्टिगोचर होता है। इन्होंने तत्त्वार्थसूत्रके सातवे अध्यायमे व्रतीको सबसे पहले माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित होना आवश्यक बतलाया, जब कि स्वामिकार्तिकेयने दार्शनिक श्रावकको निदान-रहित होना जरूरी कहा था। इसके पश्चात् इन्होने ब्रतीके श्रागारी और अनगार भेद करके अणुव्रतीको आगारी बताया । पुनः अहिंसादि व्रतोंकी पाँच-पाँच भावनाओंका वर्णन किया और प्रत्येक व्रतके पाँच-पाँच अतीचार बताये। इसके पूर्व न कुन्दकुन्दने अतीचारोकी कोई सूचना दी है और न स्वामिकार्तिकेयने ही उनका कोई वर्णन किया है । तत्त्वार्थसूत्रकारने अतीचारोंका यह वर्णन कहांसे किया, यह एक विचाणीय प्रश्न है । अतीचारोंका विस्तृत वर्णन करने पर भी कुन्द-कुन्द और कार्तिकेयके समान उमास्वातिने भी पाठ मल गुणोंका कोई वर्णन नहीं किया है, जिससे पता चलता है कि इनके समय तक मूल गुणोंकी कोई आवश्यकता अनुभव नहीं की गई थी। तत्त्वार्थसूत्रमें ग्यारह प्रतिमाओंका भी कोई उल्लेख नहीं है, यह बात उस दशामें विशेष चिन्ताका विषय हो जाती है, जब हम उनके द्वारा व्रतोंकी भावनाओंका और अतीचारोका विस्तृत वर्णन किया गया पाते हैं। इन्होंने कुन्दकुन्द और कार्तिकेय प्रतिपादित गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंके नामोंमै भी परिवर्तन किया है। इनके मतानुसार दिग्बत, देशव्रत, अनर्थदंड-विरति ये तीन गुणव्रत और सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोगपरिमाण, अतिथि संविभाग ये चार शिक्षावत हैं। स्वामिकार्तिकेय-प्रतिपादित देशावकाशिकको इन्होंने गुणब्रतमे और भोगोपभोग-परिमाणको शिक्षाव्रतमें परिगणित किया है। सूत्रकारने मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओंका भी वर्णन किया है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रमें अहिंसादि व्रतोंकी भावनाओं, अतीचारों और मैत्र्यादि भावनाअोके रूपमें तीन विधानात्मक विशेषताओंका तथा अष्टमूलगुण और ग्यारह प्रतिमाओंके न वर्णन करने रूप दो अविधानात्मक विशेषताओंका दर्शन होता है ।
स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थसूत्रके पश्चात् श्रावकाचारपर स्वतंत्र ग्रन्थ लिखनेवाले स्वामी समन्तभद्रपर हमारी दृष्टि जाती है, जिन्होंने रत्नकरण्डक रचकर श्रावकधर्म-पिपासु एवं जिज्ञासु जनों के लिए सचमुच रत्नोंका करण्डक (पिटारा) ही उपस्थित कर दिया है। इतना सुन्दर और परिष्कृत विवेचन उनके नामके ही अनुरूप है।।
रत्नकरण्ड श्रावकाचारपर जब हम सूक्ष्म दृष्टि डालते हैं तब यह कहने में कोई सन्देह नही रहता कि वे अपनी रचनाके लिए कमसे कम चार ग्रन्थोंके आभारी तो हैं ही। श्रावकों के बारह व्रतोका, अनर्थदंडके पाँच भेदोंका और प्रतिमाओंका वर्णन असदिग्ध रूपसे कार्तिकेयानुप्रेक्षाका आभारी है। अतीचारोंके वर्णनके लिए तत्त्वार्थसूत्रका सातवाँ अध्याय अाधार रहा है। सम्यग्दर्शनकी इतनी विशद महिमाका वर्णन दर्शनपाहुड, कार्तिकेयानुप्रेक्षा और षटखंडागमका आभारी है। समाधिमरण तथा मोक्षका विशद वर्णन निःसन्देह भगवती श्राराधनाका अाभारी है । (हालांकि यह कहा जाता है कि समन्तभद्रसे प्रबोधको प्राप्त शिवकोटि प्राचार्य ने भगवती अाराधनाकी रचना की है। पर विद्वानोंमें इस विषयमै मतभेद है और नवीन शोधोंके अनुसार भगवती आराधनाके रचयिता शिवार्य समन्तभद्रसे बहुत पहले सिद्ध होते हैं।) इतना सब कुछ होनेपर भी रत्नकरण्डकमें कुछ ऐसा वैशिष्टय है जो अपनी समता नहीं रखता। धर्मकी परिभाषा, सत्यार्थ देव, शास्त्र,