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११-श्रावक धर्म का क्रमिक विकास
आचार्य कुन्दकुन्द
दिगम्बर परम्परामे भगवद् भूतबलि, पुष्पदन्त और गुणधराचार्यके पश्चात् शास्त्र-रचयिताश्रोमें सर्व प्रथम आचार्य कुन्दकुन्द हैं। इन्होने अनेकों पाहुडोकी रचना की है, जिनमें एक चारित्र-पाहुड भी है। इसमे उन्होने अत्यन्त संक्षेपसे श्रावकधर्मका वर्णन केवल छह गाथाओंमे किया है। एक गाथामें संयमाचरणके दो भेद करके बताया कि सागार संयमाचरण गृहस्थोंके होता है। दूसरी गाथामे ग्यारह प्रतिमाअोके नाम कहे । तीसरी गाथामे सागार संयमाचरणको पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप कहा है । पुनः तीन गाथाओंमें उनके नाम गिनाये गये है। इतने संक्षिप्त वर्णनसे केवल कुन्दकुन्द-स्वोकृत अणुव्रत, गुणवत
और शिक्षाव्रतोंके नामोंका ही पता चलता है, और कुछ विशेष ज्ञात नहीं होता । इन्होंने सल्लेखनाको चौथा शिक्षाबत माना है और देशावकाशिक व्रतको न गुणवतों में स्थान दिया है और न शिक्षाव्रतोमे। इनके मतसे दिक्परिमाण, अनर्थदंड-वर्जन और भोगोपभोग-परिमाण ये तीन गुणव्रत है, तथा सामायिक प्रोषध, अतिथिपूजा और सल्लेखना ये चार शिक्षा व्रत है। इनके इस वर्णनमै यह बात विचारणीय है कि सल्लेखनाको चौथा शिक्षाव्रत किस दृष्टिसे माना है, जब कि वह मरणके समय ही किया जानेवाला कर्तव्य है ? और क्या इस चौथे शिक्षा व्रतकी पूर्तिके विना ही श्रावक तीसरी आदि प्रतिमाओंका धारी हो सकता है ?
स्वामी कार्तिकेय आ० कुन्दकुन्दके पश्चात् मेरे विचारसे उमास्वाति और समन्तभद्रसे भी पूर्व स्वामी कार्तिकेय हुए हैं। उन्होने अनुप्रेक्षा नामसे प्रसिद्ध अपने ग्रन्थमे धर्म भावनाके भीतर श्रावकधर्मका विस्तृत वर्णन किया है। इनके प्रतिपादनकी शैली स्वतंत्र है। इन्होंने जिनेन्द्र-उपदिष्ट धर्मके दो भेद बताकर संगासनों-परिग्रह धारी गृहस्थोंके धर्मके बारह भेद बताये हैं। यथा-१ सम्यग्दर्शनयुक्त, २ मद्यादि स्थूल-दोषरहित, ३ व्रतधारी, ४ सामायिक, ५ पर्ववती, ६ प्रासुक-श्राहारी, ७ रात्रिभोजनविरत, ८ मैथुनत्यागी, ६ श्रारम्भत्यागी, १० संगत्यागी,
१ दुविहं संजम चरणं सायारं तह हवे णिराया।
सायारं सग्गंथे परिग्गहारहिय खलु णिरायारं ॥२०॥ दसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य । बंभारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिठ देसविरदी य ॥२१॥ पंचेवणुब्वयाई गुणब्वयाइं हवंति तह तिरिण। सिक्खावय चत्तारि संजमचरणं च सायारं ॥२२॥ थूले तसकायबहे थूले मोसे तितिक्ख थूले य । परिहारो परपिम्मे परिग्गहारंभपरिमाणं ॥२३॥ दिसि-विदिसिमाण पढम अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिरिण ॥२४॥ सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं अतिहिपुज्ज चउत्थ संलेहणा अंते ॥२५॥-चारित्रयाहुड