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वसुनन्दि पर प्रभाव
१३-वसुनन्दि पर प्रभाव प्रस्तुत श्रावकाचारके अन्तःपरीक्षण करनेपर विदित होता है कि वसुनन्दिपर जिन प्राचार्योंका प्रभाव है, उनमें सबसे अधिक श्रा० कुन्दकुन्द, स्वामिकार्तिकेय, प्राचार्य यतिवृषभ और देवसेनका है । इन प्राचार्योंके प्रभावोंका विवरण इस प्रकार है:
१-श्राचार्य कुन्दकुन्द और स्वामिकार्तिकेयके समान ही वसुनन्दिने श्रावक-धर्मका वर्णन ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर किया है ।
२-उक्त दोनों प्राचार्योंके समान ही आठ मूलगुणोंका वर्णन नहीं किया है। ३–तीनो श्राचार्योंके समान ही अतीचारोंका वर्णन नहीं किया है ।
४-श्राचार्य देवसेन द्वारा रचित भावसंग्रहके, पूजा, दान और उनके भेद, फलादिके समस्त वर्णनको श्राधार बनाकर वसुनन्दिने अपने उक्त प्रकरणोंका निर्माण किया है ।
५-वसु० श्रावकाचारके प्रारम्भमे जो जीवादि सात तत्त्वों, सम्यक्त्वके आठ अंगों और उनमें प्रसिद्धिप्राप्त पुरुषोका वर्णन है, वह ज्योका त्यों भाव संग्रहके इसी प्रकरणसे मिलता है, बल्कि वसु० श्रावकाचारमें ५१ से ५६ तककी दूरी ६ गाथाएँ तो भाव-संग्रहसे उठाकर ज्यों की त्यों रखी गई हैं।
६-रात्रि भोजन सम्बन्धीवर्णनपर प्राचार्य रविषेण जिनसेन,सोमदेव, देवसेन और अमितगतिका प्रभाव है।
७-सप्तव्यसनोंके वर्णनपर अन्य अनेक श्राचार्योंके वर्णनके अतिरिक्त सबसे अधिक प्रभाव अमितगतिका है।
८-नरकके दुःखोंके वर्णनपर प्राचार्य यतिवृषभकी तिलोयपएणत्तीका अधिक प्रभाव है। शेष गतियों के दुःख वर्णनपर स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा प्रभाव है।
-ग्रन्थके अन्तमें जो क्षपक-श्रेणी और तेरहवें चौदहवें गुणस्थानका वर्णन है उसपर सिद्धान्त ग्रन्थ षट्खंडागम और कसायपाहुडका प्रभाव है, जो कि वसुनन्दिके सिद्धान्तचक्रवर्तित्वको सूचित करता है।
१०-इसी प्रकरणके योग-निरोध सम्बन्धी वर्णन पर प्राचार्य यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोंका प्रभाव स्पष्ट है ।
११-इसके अतिरिक्त ग्यारह प्रतिमाओंके स्वरूपका वर्णन करनेवाली २०५, २०७, २७४, २८०, २६५-३०१ नम्बरवाली ग्यारह गाथाएँ तो ज्यों की त्यों श्रावकप्रतिक्रमण सूत्रसे उठाकर रखी गई हैं तथा इसीके अनुसार ही शिक्षाव्रतोंका वर्णन किया गया है।
* टिप्पणी-प्राचार्य वसुनन्दिने भावसंग्रहका अपने प्रन्थमें कितना और कैसा उपयोग किया है, यह नीचे दी गई तालिकासे ज्ञात कीजिये:(१) भावसंग्रहः-३०३ ३०४ ३०५ ३०६-३१२ ३१९-३२० | ३२४ | ३२१-३२३
वसु० श्रा०-१६/ १७ | २० | २१-२२ ३९-४० ४१ ४२ (२) भावसंग्रह-३४४-३४५ ३४६ ३४८ ४९४-४९८ ५२७-५२८ ५३२
वसु० श्रा०-४३-४४ ४५ ४७ २२०-२२४ २२५-२३३ २४२ (३) भावसंग्रह-४९९-५०१ ५३३ ५३६ ५८७-५९१ ५९३ ५९६-५९७ |
वसु० श्रा०-२४५-२४७ / २४८ २६१२४९-२५७ / २६४२६७-२६९ (४) भावसंग्रह-४२८-४४५/४७०-४८२ | ४८३-४८४|४१०/४०८-४११
वसु० श्रा०-४५७-४७६ J४८३-४९३ ५१०-५११ ५१३ ४९५-४०७ (५) भावसंग्रह-४१२-४१९ ४३०-४२२ ६७७
वसु० श्रा०-४९८-५०५ ५०९-५१०५१८-५१९ ५३५