________________
शील का स्वरूप
११-शील का स्वरूप सूत्रकार द्वारा गुणवतो और शिक्षाव्रतोंकी जो 'शील' सज्ञा दी गई है, उस 'शील' का क्या स्वरूप है, यह शंका उपस्थित होती है। प्राचार्य अमितगतिने अपने श्रावकाचारमें 'शील' का स्वरूप इस प्रकारसे दिया है :
संसारारातिभीतस्य व्रतानां गुरुसाक्षिकम् । गृहीतानामशेषाणां रक्षणं शीलमुच्यते ॥४१॥
-अमि० श्रा० परि० १२. ___ अर्थात्-संसारके कारणभूत कर्मशत्रुओंसे भयभीत श्रावकके गुरुसाक्षीपूर्वक ग्रहण किये गये सब व्रतोंके रक्षणको शील कहते हैं। पूज्यपाद श्रावकाचारमे शीलका लक्षण इस प्रकार दिया है :
यद् गृहीतं व्रतं पूर्व साक्षीकृत्य जिनान् गुरून् ।
तद् व्रताखंडनं शीलमिति प्राहुर्मुनीश्वराः ॥७॥ अर्थात्-देव या गुरुकी साक्षीपूर्वक जो व्रत पहले ग्रहण कर रखा है, उसका खंडन नहीं करनेको मुनीश्वर 'शील' कहते हैं।
शीलके इसी भावको बहुत स्पष्ट शब्दोंमें अमृतचन्द्राचार्य ने अपने पुरुषार्थ-सिद्धथु पायमें व्यक्त किया है कि जिस प्रकार कोट नगरोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार शील व्रतोंकी रक्षा करते हैं, अतएव व्रतोंकी रक्षा करनेके लिए शीलोंको भी पालना चाहिए।
व्रतका अर्थ हिंसादि पापोंका त्याग है और शीलका अर्थ गृहीत व्रतकी रक्षा करना है। जिस प्रकार कोट नगरका या बाढ़ बीजका रक्षक है उसी प्रकार शील भी व्रतोंका रक्षक है। नगर मूल अर्थात् प्रथम है
और कोट उत्तर अर्थात् पीछे है। इसी प्रकार बीज प्रथम या मूल है और बाढ़ उत्तर है। ठीक इसी प्रकार अहिंसादि पाँच व्रत श्रावकोंके और मुनियोंके मूलगुण हैं और शेष शील व्रत या उत्तर गुण हैं, यह फलितार्थ जानना चाहिए।
मेरे विचारसे श्रावकके शील और उत्तरगुण एकार्थक रहे हैं। यही कारण है कि सूत्रकारादि जिन अनेक आचार्योंने गुणव्रत और शिक्षाव्रतकी शील संज्ञा दी है, उन्हें ही सोमदेव आदिने उत्तर गुणोंमें गिना है। हाँ, मुनियोंके शील और उत्तरगुण विभिन्नार्थक माने गये हैं । । उक्त निष्कर्षके प्रकाशमैं यह माना जा सकता है कि उमास्वाति या उनके पूर्ववर्ती श्राचार्योंको श्रावकोंके मूलवत या मूलगुणोंकी संख्या पाँच और शीलरूप उत्तरगुणोंकी संख्या सात अभीष्ट थी। परवर्ती श्राचार्यों ने उन दोनोंकी संख्याको पल्लवित कर मूलगुणोंकी संख्या आठ और उत्तर गुणोंकी संख्या बारह कर दी। हालाँकि समन्तभद्रने श्राचार्यान्तरोंके मतसे मूल गुणोंकी संख्या आठ कहते हुए भी स्वयं मूलगुण या उत्तर गुणोंकी कोई संख्या नहीं कही है, और न मूल वा उत्तर रूपसे कोई विभाग ही किया है।
१ परिचय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि ।
व्रतपालनाय तस्माच्छीलाम्यपि पालनीयानि ॥१३६॥-पुरुषार्थसिद्धयुपाय २ महुमज्जमंसविरई चाओ पुण उबराण पंचएहं ।
अछेदे मूलगुणा हवंति फुड देसविरयम्मि ॥३५६॥-भावसंग्रह पंचधाऽणुव्रतं त्रेधा गुणवतमगारिणाम् । शिक्षाव्रतं चतुर्धेति गुणाः स्युद्वादशोत्तरे ॥-यशस्ति० प्रा० ८. सागार० अ०४