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वसुनन्दि-श्रावकाचार प्रकट होनेवाले दोनों अर्थोके समन्वयका प्रयत्न किया है और तदनुसार छठी प्रतिमाम दिनको स्त्री-सेवनका त्याग तथा रात्रिमे सर्व प्रकारके आहारका त्याग आवश्यक बताया है।
(५) श्रा० वसुनन्दिके प्रस्तुत उपासकाध्ययनकी एक बहुत बड़ी विशेषता ग्यारहवीं प्रतिमाधारी प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके लिए भिक्षा-पात्र लेकर, अनेक घरोंसे भिक्षा माँगकर और एक ठौर बैठ कर खानेके विधान करने की है। दि० परम्परामे इस प्रकारका वर्णन करते हुए हम सर्वप्रथम श्रा० वसुनन्दिको ही पाते हैं। सैद्धान्तिक-पद-विभूषित श्रा० वसुनन्दिने प्रथमोत्कृष्ट श्रावकका जो इतना विस्तृत और स्पष्ट वर्णन किया है वह इस बातको सूचित करता है कि उनके सामने इस विषयके प्रबल अाधार अवश्य रहे होंगे। अन्यथा उन जैसा सैद्धान्तिक विद्वान् पात्र रखकर और पॉच-सात घरसे भिक्षा माँगकर खानेका स्पष्ट विधान नहीं कर सकता था।
अब हमे देखना यह है कि वे कौनसे प्रबल प्रमाण उनके सामने विद्यमान थे, जिनके अाधारपर उन्होने उक्त प्रकारका वर्णन किया ? सबसे पहले हमारी दृष्टि प्रस्तुत प्रकरणके अन्तमे कही गई गाथापर जाती है, जिसमें कहा गया है कि 'इस प्रकार मैंने ग्यारहवे स्थानमें सूत्रानुसार दो प्रकारके उद्दिष्टपिडविरत श्रावकका वर्णन संक्षेपसे किया ।' (देखो गा० नं० ३१३) इस गाथामें दिये गये दो पदोपर हमारी दृष्टि अटकती है। पहला पद है 'सूत्रानुसार, जिसके द्वारा उन्होंने प्रस्तुत वर्णनके स्वकपोल-कल्पितत्वका परिहार किया है। और दूसरा पद है 'संक्षेपसे' जिसके द्वारा उन्होने यह भाव व्यक्त किया है कि मैंने जो उद्दिष्टपिंडविरतका इतना स्पष्ट और विस्तृत वर्णन किया है, उसे कोई 'तिलका ताड़' या 'राईका पहाड़' बनाया गया न समझे, किन्तु श्रागम-सूत्रमे इस विषयका जो विस्तृत वर्णन किया गया है, उसे मैंने 'सागरको गागरमें भरनेके समान अत्यन्त सक्षेपसे कहा है।
अब देखना यह है कि वह कौन-सा सूत्र-ग्रन्थ है, जिसके अनुसार वसुनन्दिने उक्त वर्णन किया है ? प्रस्तुत उपासकाध्ययनपर जब हम एक बार आद्योपान्त दृष्टि डालते हैं तो उनके द्वारा वार-वार प्रयुक्त हुआ 'उवासयज्झयण' पद हमारे सामने आता है। वसुनन्दिके पूर्ववर्ती श्रा० अमितगति, सोमदेव और भगवजिनसेनने भी अपने-अपने ग्रन्थों में 'उपासकाध्ययन'का अनेक वार उल्लेख किया है। उनके उल्लेखोसे इतना तो अवश्य ज्ञात होता है कि वह उपासकाध्ययन सूत्र प्राकृत भाषामे रहा है, उसमे श्रावकोके १२ व्रत या ११ प्रतिमाओंके वर्णनके अतिरिक्त पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक रूपसे भी श्रावक-धर्मका वर्णन था । भगवजिनसेनके उल्लेखोसे यह भी ज्ञात होता है कि उसमे दीक्षान्वयादि क्रियाओंका, षोडश संस्कारोंका, सन्जातित्व
आदि सप्त परम स्थानोका, नाना प्रकारके व्रत-विधानोंका और यज्ञ, जाप्य, हवन आदि क्रियाकांडका समंत्र सविधि वर्णन था । वसुनन्दि-प्रतिष्ठापाठ, जयसेन प्रतिष्ठापाठ और सिद्धचक्रपाठ आदिके अवलोकनसे उपलब्ध प्रमाणोंके द्वारा यह भी ज्ञात होता है कि उस उपासकाध्ययनमें क्रियाकांड-सम्बन्धी मंत्र तक प्राकृत भाषामें थे। इतना सब होनेपर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि उक्त सभी श्राचार्यों द्वारा निर्दिष्ट उपासकाध्ययन एक ही रहा है। यदि सभीका अभिप्रेत उपासकाध्ययन एक ही होता, तो जिनसेनसे सोमदेवके वस्तु-प्रतिपादनमें इतना अधिक मौलिक अन्तर दृष्टिगोचर न होता। यदि सभीका अभिप्रेत आसकाध्ययन एक ही रहा है, तो निश्चयतः वह बहुत विस्तृत और विभिन्न विषयोकी चर्चाअोसे परिपूर्ण रहा है, पर जिनसेन श्रादि किसी भी परवर्ती विद्वानको वह अपने समग्र रूपमें उपलब्ध नहीं था। हाँ, खंड-खंड रूपमें वह यत्र-तत्र तत्तद्विषयके विशेषज्ञोंके पास अवश्य रहा होगा और संभवतः यही कारण रहा है कि जिसे जो अंश उपलब्ध रहा, उसने उसीका अपने ग्रन्थमें उपयोग किया।
दि० साहित्यमै अन्वेषण करनेपर भी ऐसा कोई आधार नहीं मिलता है जिससे कि प्रथमोत्कृष्ट श्रावक की उक्त चर्या प्रमाणित की जा सके। हाँ, बहुत सूक्ष्म रूपमें कुछ बीज अवश्य उपलब्ध हैं। पर जब वसुनन्दि कहते हैं कि मैंने उक्त कथन संक्षेपसे कहा है, तब निश्चयतः कोई विस्तृत और स्पष्ट प्रमाण उनके सामने अवश्य रहा प्रतीत होता है। कुछ विद्वान् उक्त चर्याका विधान शूद्र-जातीय उत्कृष्ट श्रावकके लिए किया गया