Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 20
________________ श्रावकधर्म-प्रतिपादनके प्रकार २१ अणुव्रतरूप देश संयम को धारण करने के कारण देशसंयमी या देशविरत कहते हैं। इसी का दूसरा नाम संयतासंयत भी है क्योकि यह स्थूल या त्रसहिंसा की अपेक्षा संयत है और सूक्ष्म या स्थावर हिंसा की अपेक्षा असंयत है। घर में रहता है, अतएव इसे गृहस्थ, सागार, गेही, गृही और गृहमेधी आदि नामों से भी पुकारते हैं। यहाँ पर 'गृह' शब्द उपलक्षण है, अतः जो पुत्र, स्त्री, मित्र, शरीर, भोग आदि से मोह छोड़ने में असमर्थ होने के कारण घर में रहता है उसे गृहस्थ आदि कहते हैं। ७-उपासकाध्ययन या श्रावकाचार उपासक या श्रावक जनोके आचार-धर्मके प्रतिपादन करनेवाले सूत्र, शास्त्र या ग्रन्थको उपासकाध्ययनसूत्र, उपासकाचार या श्रावकाचार नामोसे व्यवहार किया जाता है। द्वादशांग श्रुतके बारह अंगोंमें श्रावकोके आचार-विचार का स्वतन्त्रतासे वर्णन करनेवाला सातवाँ अंग उपासकाध्ययन माना गया है। प्राचार्य वसुनन्दि ने भी अपने प्रस्तुत ग्रन्थका नाम उपासकाध्ययन ही दिया है जैसा कि प्रशस्ति-गत ५४५ वीं गाथासे स्पष्ट है । ___ स्वामी समन्तभद्र ने संस्कृत भाषामें सबसे पहले उक्त विषयका प्रतिपादन करनेवाला स्वतन्त्र ग्रन्थ रचा और उसका नाम 'रत्नकरण्डक' रक्खा । उसके टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपनी टीकामें और उसके प्रत्येक परिच्छेदके अन्तमे 'रत्नकरण्डकनाम्नि उपासकाध्ययने' वाक्यके द्वारा 'रत्नकरण्डकनामक उपासकाध्ययन' ऐसा लिखा है। इस उल्लेखसे भी यह सिद्ध है कि श्रावक-धर्मके प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको सदासे उपासकाध्ययन ही कहा जाता रहा है। बहुत पीछे लोगोने अपने बोलनेकी सुविधाके लिए श्रावकाचार नामका व्यवहार किया है। - प्राचार्य सोमदेवने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ यशस्तिलकके पांचवें आश्वासके अन्तमें 'उपासकाध्ययन' कहने की प्रतिज्ञा की है। यथा इयता ग्रन्थेन मया प्रोक्तं चरितं यशोधरनृपस्य । इत उत्तरं तु वये श्रुतपठितमुपासकाध्ययनम् ॥ अर्थात् इस पाँचवें श्राश्वास तक तो मैंने महाराज यशोधरका चरित कहा । अब इससे आगे द्वादशांगश्रत-पठित उपासकाध्ययन को कहूँगा। दिगम्बर-परम्परामें श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाले स्वतन्त्र ग्रन्थ इस प्रकार हैं:-रत्नकरण्डक, अमितगति-उपासकाचार, सुनन्दि-उपासकाध्ययन, सागारधर्मामृत, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, पूज्यपाद श्रावकाचार, गुणभूषणश्रावकाचार, लाटी-संहिता आदि। इसके अतिरिक्त स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी धर्मभावनामें, तत्त्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायमें, आदिपुराणके ३८, ३९, ४० वे पर्व में, यशस्तिलकके ६,७,८वें श्राश्वासमे, तथा भावसंग्रहमें भी श्रावक्रधर्मका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। श्वेताम्बर-परम्परामें उपासकदशासूत्र, श्रावकधर्मप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय है। ८-श्रावकधर्म-प्रतिपादनके प्रकार उपलब्ध जैन वाङ्मयमें श्रावक-धर्मका वर्णन तीन प्रकारसे पाया जाता है: १. ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर । २. बारह व्रत और मारणान्तिकी सल्लेखनाका उपदेश देकर। ३. पक्ष, चर्या और साधनका प्रतिपादन कर।। (१) उपर्युक्त तीनों प्रकारों में से प्रथम प्रकारके समर्थक या प्रतिपादक प्राचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कार्तिकेय और वसुनन्दि आदि रहे हैं । इन्होंने अपने-अपने ग्रन्थों में ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर ही

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