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नयनन्दिका परिचय और वसुनन्दिका समय
जिणिंदागमब्भासणे एयचित्तो, तवायारणिलाइ लद्धाइजुत्तो। णरिंदामरिंदाहिवाणंदवंदी, हुप्रो तस्स सीसो गणी रामगंदी॥ असेसाणगंथंमि पारंमि पत्तो, तवे अंगवी भव्वराईवमित्तो । गुणायासभूवो सुतिल्लोक्कणंदी, महापंडि अंतस्य (ो तस्स) माणिकरणंदी ॥
घत्तापढम सीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि रायणंदी आणिंदिउ । चरिउँ सुदंसणणाहहो तेण, अवाह हो विरइउं बुह अहिणंदिउं॥ आराम-गाम-पुरवरणिवेस, सुपसिद्ध अवंती णाम देस । सुरवइपुरिव विवुहयणइट्ठ, तहिं अस्थि धारणयरीगरिठ्ठ ॥ रणिदुद्धर अरिवर-सेल-वज्जु, रिद्धिय देवासुर जणिय चोज्जु । तिहुयणु णारायण सिरिणिकेउ, तहिं णरवइ पुंगमु भोयदेउ ॥ मणिगणपहदूसिय रविगभत्थि, तहिं जिणवर वधु विहारु अस्थि । णिव विक्कम्मकालहो ववगएसु, एयारह संवच्छर सएसु । तहिं केवलि चरिउं अमरच्छरेण, रायणंदी विरयउ वित्थरेण ॥
घत्ता-- यणंदियहो मुणिंदहो कुवलयचंदहो गारदेवासुर बंदहो।
देउ देइ मइ जिम्मल भवियहं मंगल वाया जिणवर चंदहो ॥ उक्त प्रशस्तिसे यह बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि वे धारा-नरेश महाराज भोजके समय विद्यमान थे, और विक्रम संवत् ११०० मे उन्होंने सुदर्शनचरित की रचना पूर्ण की। पर साथ ही इस प्रशस्तिसे
और भी अनेक बातोंरर नवीन प्रकाश पड़ता है जिनमेसे एक यह है कि नयनन्दि सुप्रसिद्ध तार्किक एवं परीक्षामुख सूत्रकार महापंडित माणिक्यनन्दिके शिष्य थे-जब कि श्राचार्य वसुनन्दिने नयनन्दिको 'श्रीनन्दि' का शिष्य कहा है। नयनन्दिने अपनी जो गुरुपरम्परा दी है, उसमें 'श्रीनन्दि' नामके किसी प्राचार्यका नामोल्लेख नहीं है । हाँ, नन्दिपदान्तवाले अनेक नाम अवश्य मिलते हैं। यथा-रामनन्दि, विशाखनन्दि, नन्दनन्दि इत्यादि । नयनन्दिकी दी हुई गुरु-परम्परा में तो किसी प्रकारकी शंका या सन्देहको स्थान है ही नहीं, अतः प्रश्न यह उठता है कि श्रा० वसुनन्दिको नयनन्दि द्वारा दी गयी गुरुपरम्परामेंसे कौनसे 'नन्दि' अभीष्ट हैं ? मेरे विचारसे 'रामनन्दि' के लिए ही श्रा० वसुनन्दिने 'श्रीनन्दि लिखा है। क्योंकि जिन विशेषणोंसे नयनन्दिने रामनन्दिका स्मरण किया है, वे प्रायः वसुनन्दि द्वारा श्रीनन्दिके लिए दिये गये विशेषणोंसे मिलते-जुलते हैं। यथा-(१) जिणिंदागमब्भासणे एयश्चित्तो-नयनन्दि
जो सिद्धतंबुरासिं सुणयतरणिमासेज लीलावतिण्णो।-वसुनन्दि (२) तवायारणिहाइ लद्धाइजुत्तो, णरिंदामरिंदाहिवाणंदवंदी-नयनन्दि
वण्णेउं कोसमत्थो सयलगुणगणं सेवियंतो वि लोए-वसुनन्दि इस विषयमें अधिक ऊहापोह अप्रासंगिक होगा, पर इससे इतना तो निश्चित ही है कि नयनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र हुए और उनके शिष्य वसुनन्दि । वसुनन्दिने जिन शब्दों में अपने दादागुरुका, प्रशंसापूर्वक उल्लेख किया है उससे ऐसा अवश्य ध्वनित होता है कि वे उनके सामने विद्यमान रहे हैं। यदि यह अनुमान ठीक हो, तो बारहवीं शताब्दिका प्रथम चरण वसुनन्दिका समय माना जा सकता है। यदि वे उनके सामने विद्यमान न भी रहे हों तो भी प्रशिष्यके नाते वसुनन्दिका काल बारहवीं शताब्दीका पूर्वार्धं ठहरता है।