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वसुनन्दि-श्रावकाचार
का संग्रह हो जाता है। माननेवाली परम्पराका संग्रह तो इसलिए हो जाता है कि मूल गुणोके अन्तस्तत्त्वका निरूपण कर दिया है और मूलगुणोंके न माननेवाली परम्पराका संग्रह इसलिए हो जाता है कि मूल गुण या अष्टमूलगुण ऐसा नामोल्लेख तक भी नहीं किया है। उनके इस प्रकरणको देखनेसे यह भी विदित होता है कि उनका मुकाव सोमदेव और देवसेन-सम्मत अष्टमूल गुणो की ओर रहा है, पर प्रथम प्रतिमाधारी को रात्रि-भोजन का त्याग आवश्यक बताकर उन्होने अमितगति के मत का भी संग्रह कर लिया है।
(५) अन्तिम मुख्य प्रश्न अतीचारों के न वर्णन करने के सम्बन्ध में है। यह सचमुच एक बडे अाश्चर्यका विषय है कि जब उमास्वातिसे लेकर अमितगति तकके वसुनन्दिसे पूर्ववर्ती सभी प्राचार्य एक स्वर से व्रतोंके अतीचारोंका वर्णन करते आ रहे हों, तब वसुनन्दि इस विषयमें सर्वथा मौन धारण किये रहें और यहाँ तक कि समग्र ग्रंथ भरमे अतीचार शब्दका उल्लेख तक न करें ! इस विषयमें विशेष अनुसन्धान करने पर पता चलता है कि वसुनन्दि ही नहीं, अपितु वसुनन्दिपर जिनका अधिक प्रभाव है ऐसे अन्य अनेक
आचार्य भी अतीचारोंके विषयमे मौन रहे है। प्राचार्य कुन्दकुन्दने चारित्र-पाहुडमें जो श्रावकके व्रतोका वर्णन किया है, उसमें अतीचारका उल्लेख नहीं है । स्वामिकार्तिकेयने भी अतीचारोंका कोई वर्णन नहीं किया है। इसके पश्चात् प्राचार्य देवसेनने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ भावसंग्रहमें जो पाँचवें गुणस्थानका वर्णन किया है, वह पर्याप्त विस्तृत है, पूरी २४९ गाथाओंमें श्रावक धर्मका वर्णन है, परन्तु वहाँ कहीं भी अतीचारोंका कोई जिक्र नहीं है। इस सबके प्रकाशमें यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस विषयमें प्राचार्योंकी दो पराम्पराएँ रही हैं-एक अतोचारोका वर्णन करनेवालों की, और दूसरी अतीचारोंका वर्णन न करने करनेवालों की । उनमेंसे प्राचार्य वसुनन्दि दूसरी परम्पराके अनुयायी प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि उन्होंने अपनी गुरुपरंपराके समान स्वयं भी अतीचारोंका कोई वर्णन नहीं किया है।
अब ऊपर सुझाई गई कुछ अन्य विशेषताअोंके ऊपर विचार किया जाता है :
१-(अ) वसुनन्दिसे पूर्ववर्ती श्रावकाचार-रचयिताओं में समन्तभद्रने ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप स्वदार-सन्तोष या परदारा-गमनके परित्याग रूपसे किया है। सोमदेवने उसे और भी स्पष्ट करते हुए 'स्ववधू और वित्तस्त्री' (वेश्या ) को छोड़कर शेष परमहिला-परिहार रूपसे वर्णन किया है। परवर्ती पं०
आशाधरजी श्रादिने 'अन्यत्री और प्रकटस्त्री' (वेश्या) के परित्याग रूपसे प्रतिपादन किया है। पर वसुनन्दिने उक्त प्रकारसे न कहकर एक नवीन ही प्रकारसे ब्रह्मचर्याणु व्रतका स्वरूप कहा है। वे कहते हैं कि 'जो अष्टमी श्रादि पर्वोके दिन स्त्री-सेवन नहीं करता है और सदा अनंग-क्रीड़ाका परित्यागी है, वह स्थूल ब्रह्मचारी या ब्रह्मचर्याणु व्रतका धारी है। (देखो प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा नं० २१२) इस स्थितिमें स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि श्रा० वसुनन्दिने समन्तभद्रादि-प्रतिपादित शैलीसे ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप न कहकर उक्त प्रकारसे क्यों कहा ? पर जब हम उक्त श्रावकाचारोंका पूर्वापर-अनुसन्धानके साथ गंभीरतापूर्वक अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि समन्तभद्रादि ने श्रावकको अणुव्रतधारी होनेके पूर्व सप्तव्यसनोंका त्याग नहीं कराया है अतः उन्होंने उक्त प्रकारसे ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप कहा है। पर वसुनन्दि तो प्रथम प्रतिमाघारीको ही सप्त व्यसनोंके अन्तर्गत जब परदारा और वेश्यागमन रूप दोनों व्यसनों का त्याग करा आये
१ देखो प्रस्तुत ग्रन्थ की गाथा नं० ३१४ । २ न तु परदारान् गच्छति, न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् ।
सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामापि ॥-रत्रक० श्लो० ५६. . ३ वधू-वित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने।
माता स्वसा तनूजेति मतिर्ब्रह्म गृहाश्रमे ॥-यशस्ति० प्रा० ७. ४ सोऽस्ति स्वदारसन्तोषी योऽन्यस्त्रो-प्रकटस्त्रियौ।
न गच्छुत्यंहसो भीत्या नान्यैर्गमयति विधा॥-सागार १०४ श्लो० ५२.