Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 28
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार की विशेषताएँ से देखने पर उसमे दिए गए "बाहु" और "श्रमणोत्तमाः" पद पर दृष्टि अटकती है। दोनों पद स्पष्ट बतला रहे है कि समन्तभद्र अन्य प्रसिद्ध प्राचार्यों के मन्तव्य का निर्देश कर रहे हैं। यदि उन्हें आठ मूल गुणों के प्रतिपादन अभीष्ट होता तो वे मद्य, मांस और मधु के सेवन के त्याग का उपदेश बहुत आगे जाकर, भोगोपभापरिमाण-व्रत मे न करके यहीं, या इसके भी पूर्व अणुव्रतो का वर्णन प्रारंभ करते हुए देते। भोगोपभोगपरिमाणव्रतके वर्णनमें दिया गया वह श्लोक इस प्रकार है सहतिपरिहरणार्थं क्षौद्र पिशितं प्रमादपरिहृतये । मयं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ॥८॥-रत्नक० । अर्थात् जिन भगवान्के चरणोंकी शरणको प्राप्त होनेवाले जीव त्रसजीवोंके घातका परिहार करने लिए मांस और मधुको तथा प्रमादका परिहार करनेके लिए मद्यका परित्याग करें। इतने सुन्दर शब्दोंमे जैनत्वकी ओर अग्रेसर होनेवाले मनुष्यके कर्तव्यका इससे उत्तम और क्या वर्णन हो सकता था। इस श्लोकके प्रत्येक पदकी स्थितिको देखते हुए यह निस्सकोच कहा जा सकता है कि इसके बहुत पहिले जो अष्ट मूलगुणोका उल्लेख किया गया है वह केवल प्राचार्यान्तरोंका अभिप्राय प्रकट करनेके लिए ही है । अन्यथा इतने उत्तम, परिष्कृत एवं सुन्दर श्लोकको भी वहीं, उसी श्लोकके नीचे ही देना चाहिये था। रत्नकरण्डकके अध्याय-विभाग-क्रमको गम्भीर दृष्टि से देखनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकारको पॉच अणुव्रत ही श्रावकके मूलगुण रूपसे अभीष्ट रहे हैं । पर इस विषयमैं उन्हें अन्य प्राचार्योंका अभिप्राय बताना भी उचित ऊँचा और इसलिए उन्होंने पाँच अणुव्रत धारण करने का फल श्रादि बताकर तीसरे परिच्छेद को पूरा करते हुए मूलगुणके विषयमें एक श्लोक द्वारा मतान्तरका भी उल्लेख कर दिया है। जो कुछ भी हो, चाहे अष्टमूलगुणोंका वर्णन स्वामी समन्तभद्रको अभीष्ट हो या न हो; पर उनके समयमें दो परम्पराओंका पता अवश्य चलता है। एक वह--जो मूलगुणोंकी संख्या आठ प्रतिपादन करती - थी। और दूसरी वह-जो मूलगुणोंको नहीं मानती थी, या उनकी पाँच सख्या प्रतिपादन करती थी। प्रा. कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, उमास्वाति और तात्कालिक श्वेताम्बराचार्य पाँच संख्याके, या न प्रतिपादन करनेवाली परम्पराके प्रधान थे; तथा स्वामी समन्तभद्र, जिनसेन श्रादि मूलगुण प्रतिपादन करनेवालोंमें प्रधान थे । ये दोनों परम्पराएँ विक्रमकी ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक बराबर चली आई। जिनमे समन्तभद्र, जिनसेन, सोमदेव श्रादि अाठमूल गुण माननेवाली परम्पराके और श्रा० कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, उमास्वाति तथा तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार-पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द वा वसुनन्दि आदि न माननेवाली परम्पराके प्राचार्य प्रतीत होते हैं । तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकारोका उल्लेख इसलिए करना पड़ा कि उन सभीने भोगोपभोगपरिमाण व्रतकी व्याख्या करते हुए ही मद्य, मांस, मधुके त्यागका उपदेश दिया है। इसके पूर्व अर्थात् अणुव्रतोंकी व्याख्या करते हुए किसी भी टीकाकारने मद्य, मांस, मधु सेवनके निषेधका या अष्टमूलगुणोका कोई संकेत नहीं किया है । उपलब्ध श्वे० उपासकदशासूत्रमें भी अष्टमूलगुणोंका कोई जिक्र नहीं है। सम्भव है, इसी प्रकार वसुनन्दिके सम्मुख जो उपासकाध्ययन रहा हो, उसमें भी अष्टमूलगुणोंका विधान न हो और इसी कारण वसुनन्दि ने उनका नामोल्लेख तक भी करना उचित न समझा हो। वसुनन्दिके प्रस्तुत उपासकाध्ययनकी वर्णन-शैलीको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि जब सप्तव्यसनोंमें मांस और मद्य ये दो स्वतंत्र व्यसन माने गये हैं और मद्य व्यसनके अन्तर्गत मधुके परित्यागका भी स्पष्ट निर्देश किया है, तथा दर्शनप्रतिमाधारीके लिए सप्त व्यसनोंके साथ पंच उदुम्बरके त्यागका भी स्पष्ट कथन किया है । तब द्वितीय प्रतिमामें या उसके पूर्व प्रथम प्रतिमामें ही अष्ट मूलगुणोंके पृथक् प्रतिपादन का कोई स्वारस्य नहीं रह जाता है। उनकी इस वर्णन-शैलीसे मूलगुण मानने न माननेवाली दोनों परम्पराओं १ देखो-प्रस्तुत ग्रन्थ की गाथा नं० ५७-५८ । ५

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