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ग्रन्थकार का परिचय
तिरिएहिं खज्जमाणो दुहमणुस्सेहिं हम्ममाणो वि। सव्वत्थ वि संतट्ठो भयदुक्खं विसहदे भीमं ॥ अण्णोणं खज्जंतो तिरिया पार्वति दारुणं दुक्खं ।
माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ राखेदि ॥ अर्थ-संगतिकी दृष्टि से ये दोनों गाथाएँ प्रकरणके सर्वथा अनुरूप हैं। पर जब हम अन्य प्रतियोंको सामने रखकर उनपर विचार करते हैं, तब उन्हें संशोधनमे उपयुक्त पाँच प्रतियोमैसे तीन प्रतियोंमें नहीं पाते हैं। यहाँ तक कि बाबू सूरजभान वकील द्वारा वि० सं० १९६६ में मुद्रित प्रतिमे भी वे नहीं है। अतः बहुमतके अनुसार उन्हे प्रक्षिप्त मानना पड़ेगा।
_ अब देखना यह है कि ये दोनों गाथाएँ कहाँ की हैं और यहाँ पर वे कैसे आकर मूलग्रन्थका अंग बन गई ? ग्रन्थोंका अनुसन्धान करनेपर ये दोनों गाथाएँ हमें स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामे मिलती हैं जहाँ पर कि उनकी संख्या क्रमशः ४१ और ४२ है और वे उक्त प्रकरणमें यथास्थान सुसम्बद्ध हैं। ज्ञात होता है कि किसी स्वाध्यायप्रेमी पाठकने अपने अध्ययन की प्रतिमें प्रकरणके अनुरूप होनेसे उन्हे हाशियामे लिख लिया होगा और बादमें किसी लिपिकारके प्रमादसे वे मूलग्रन्थका अंग बन गई।
(२) गाथा नं० २३० के पश्चात् श्राहार-सम्बन्धी चौदह दोषोंका निर्देश करनेवाली एक गाथा झध ब प्रतियोंमे पाई जाती है, और वह मुद्रित प्रतिमे भी है। पर प प्रतिमें वह नहीं है और प्रकरणकी स्थितिको देखते हुए वह वहाँ नहीं होना चाहिए। वह गाथा इस प्रकार है--
___णह-जंतु-रोम-अटुट्ठी-कण-कुंडय-मंस-रुहिर चम्माइं।
कंद-फल-मूल-बीया छिण्णमला चउहसा होति ।। यह गाथा मूलाराधना की है, और वहां पर ४८४ नं० पर पाई जाती है।
(३) मुद्रित प्रतिमें तथा झ और ब प्रतिमें गाथा नं० ५३७ के पश्चात् निम्नलिखित दो गाथाएँ अधिक पाई जाती हैं :
मोहक्खएण सम्मं केवलणाणं हणेइ अण्णाणं । केवलदंसण दंसण अणंतविरियं च अंतराएण ॥ सुहुमं च णामकम्म आउहणणेण हवइ अवगहण ।
गोयं च अगुरुलहुयं अव्वावाहं च वेयणीयं च ॥ इनमें यह बताया गया है कि सिद्धोंके किस कर्मके नाशसे कौन सा गुण प्रकट होता है। इसके पूर्व नं० ५३७ वीं गाथामें सिद्धोंके अाठ गुणोंका उल्लेख किया गया है। किसी स्वाध्यायशील व्यक्तिने इन दोनों गाथाओंको प्रकरणके उपयोगी जानकर इन्हे भी मार्जनमें लिखा होगा और कालान्तरमें वे मूलका अंग बन गई। यही बात चौदह मलवाली गाथाके लिए समझना चाहिए ।
उक्त पाँच प्रक्षिप्त गाथाओंको हटा देने पर ग्रन्थकी गाथाअोका परिमाण ५३६ रह जाता है। पर इनके साथ ही सभी प्रतियोमै प्रशस्तिकी ८ गाथाओंपर भी सिलसिलेवार नम्बर दिये हुए हैं अतः उन्हें भी जोड़ देनेपर ५३६+८=५४७ गाथाएं प्रस्तुत ग्रन्थ की सिद्ध होती हैं। प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा नं० ५७ केवल क्रियापदके परिवर्तनके साथ अपने अविकल रूपमे २०५ नम्बर पर भी पाई जाती है। यदि इसे न गिना जाय तो ग्रन्थकी गाथा-संख्या ५४६ ही रह जाती है।
४-ग्रन्थकारका परिचय श्राचार्य वसुनन्दिने अपने जन्मसे किस देशको पवित्र किया, किस जातिमें जन्म लिया, उनके मातापिता का क्या नाम था; जिनदीक्षा कब ली और कितने वर्ष जीवित रहे, इन सब बातोंके जाननेके लिए हमारे