Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ ग्रन्थ-परिचय १५ श्रीविशालकीर्ति, त० मं० श्रीलिखिमीचन्द्र, त० मं० सहसकीर्ति, त० मण्डलाचार्य श्री श्री श्री श्री श्रीनेमिचन्द्र तदाम्नाये खण्डेलवालान्वये पहाड्यागोत्रे साह नानिग, तस्य भार्या शीलतोयतरङ्गिणी साधवी लाछि, तयोः पुत्रत्रय प्रथम पुत्र शाह श्रीरंग, तस्य भार्या दुय २ प्रथम श्री यादे द्वितीय हरषमदे । तयोः पुत्र शाह रेडा, तस्य भार्या रैणादे । शाह नानिग दुतिय पुत्र शाह लाखा, तस्य भार्या लाडमदे, तयो पुत्र शाह नाथ, तस्य भार्या नौलादे, शाह नानिग तृतीय पुत्र शाह लाला तस्य भार्या ललितादे, तयो पुत्र २, प्रथम पुत्र चि० गागा, द्वितीय पुत्र सागा । एतेषां मध्ये शाह श्रीरंग तेन इद वमुनन्दि (उ-)पासकाचार ग्रन्थ ज्ञानावरणी कर्मक्षयनिमित्तं लिख्यापितं । मण्डलाचार्य श्री श्री श्री श्री श्री नेमिचन्द्र, तस्य शिष्यणी वाइ सवीरा जोग्य घटापितं । शुभं भवतु । मांगल्यं दद्यात् । लिखितं जोसी सूरदास । ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात्सुखी नित्यं नियाधिः भेपजाद्भवेत् ॥ १॥ सम्यक्त्वमूलं श्रुतपीठबन्धः दानादिशाखा गुणपल्लवाया । जस्ल (यशः) प्रसूनो जिनधर्मकल्पद् मो मनोऽभीष्टफलादवुस्त (फलानि दत्त)॥ हाशियामे इतना संदर्भ और लिखा है . "संवत् १६५४ ज्येष्ठ सुदि तीज तृतीया तिथौ सोमवासरे अजमेरगढ़मध्ये लिखितं च जोसी सूरदास अर्जुनसुत ज्ञाति बुन्दीवाल लिखाइतं च चिरंजिव । उपर्युक्त प्रशस्ति संस्कृत मिश्रित हिन्दी भाषामे है। इसमें लिखानेवाले शाह नानिग, उनके तीनो पुत्रों और उनकी स्त्रियोंका उल्लेख किया गया है। यह प्रति शाह नानिगके ज्येष्ठ पुत्र श्रीरंगने जोसी सूरदाससे लिखाकर संवत् १६५४ के अाषाढ़ वदी ११ मंगलवारको श्रीमण्डलाचार्य भट्टारक नेमिचन्द्रजीकी शिष्यणी सबीराबाईके लिए प्रदान की थी। प्रशस्तिके अन्तिम श्लोकका भाव यह है-"यह जिनधर्मरूप एक कल्पवृक्ष है, जिसका सम्यग्दर्शन मूल है, श्रुतज्ञान पीठबन्ध है, व्रत दान आदि शाखाएँ हैं, श्रावक और मुनियों के मूल व उत्तरगुणरूप पल्लव हैं, और यशरूप फूल हैं। इस प्रकारका यह जिनधर्मरूप कल्पद्रुम शरणार्थी या आश्रित जनोको अभीष्ट फल देता है।" म-यह बा० सूरजभान जी द्वारा देवचन्दसे लगभग ४५ वर्ष पूर्व प्रकाशित प्रति है। मुद्रित होने से इसका सकेत 'म' रखा गया है। हमने प, भ और ध प्रतियोके अनुसार गाथाओं की संख्या ५४६ ही रखी है। २-ग्रन्थ-परिचय ग्रन्थकारने अपने इस प्रस्तुत ग्रन्थका नाम स्वयं 'उपासकाध्ययन' दिया है, पर सर्व-साधारणमें यह 'वसुनन्दि-श्रावकाचार' नामसे प्रसिद्ध है। उपासक अर्थात् श्रावकके अध्ययन यानी अाचारका विचार जिसमें किया गया हो, उसे उपासकाध्ययन कहते हैं। द्वादशांग श्रुतके भीतर उपासकाध्ययन नामका सातवाँ अंग माना गया है, जिसके भीतर ग्यारह लाख सत्तर हजार पदोंके द्वारा दार्शनिक श्रादि ग्यारह प्रकारके श्रावकोंके लक्षण, उनके व्रत धारण करने की विधि और उनके श्राचरणका वर्णन किया गया है। वीर भगवान्के निर्वाण चले जानेके पश्चात् क्रमशः ६२ वर्षमैं तीन केवली, १०० वर्षमे पाँच श्रुतकेवली, १८३ वर्षमे दशपूर्वी और २२० वर्षमें एकादशांगधारी प्राचार्य हुए। इस प्रकार वीर-निर्वाणके (६२+ १०० + १८३ + २२० = ५६५) पांच सौ पैंसठ वर्ष तक उक्त उपासकाध्ययनका पठन-पाठन श्राचार्यपरम्परामें अविकलरूपसे चलता रहा। इसके पश्चात् यद्यपि इस अंगका विच्छेद हो गया, तथापि उसके एक देशके ज्ञाता श्राचार्य होते रहे और वही श्राचार्य-परम्परासे प्राप्त ज्ञान प्रस्तुत ग्रन्थके कर्त्ता प्राचार्य वसुनन्दिको प्राप्त हुआ, जिसे कि उन्होने धर्म-वात्सल्यसे प्रेरित होकर भव्य-जीवोंके हितार्थ रचा। उक्त पूर्वानुपूर्वीके प्रकट १. देखो प्रशस्ति ।

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