Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 21
________________ २२ वसुनन्दि-श्रावकाचार श्रावक-धर्म का वर्णन किया है। श्रा. कुन्दकुन्दने यद्यपि श्रावक-धर्मके प्रतिपादनके लिए कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ या पाहुडकी रचना नहीं की है, तथापि चारित्र-पाहुड मे इस विषय का वर्णन उन्होने छह गाथाश्रो द्वारा किया है । यह वर्णन अति संक्षिप्त होनेपर भी अपने आपमे पूर्ण है और उसमे प्रथम प्रकारका स्पष्ट निर्देश किया गया है। स्वामी कार्तिकेयने भी श्रावक धर्मपर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं रचा है, पर उनके नामसे प्रसिद्ध 'अनुप्रेक्षा' मे धर्मभावनाके भीतर श्रावक धर्मका वर्णन बहुत कुछ विस्तार के साथ किया है। इन्होने भी बहुत स्पष्ट रूपसे सम्यग्दर्शन और ग्यारह प्रतिमाओको श्राधार बनाकर ही श्रावक धर्मका वर्णन किया है। स्वामिकार्तिकेयके पश्चात् आ० वसुनन्दिने भी उक्त सरणिका अनुसरण किया। इन तीनो ही प्राचार्योंने न अष्ट मूल गुणोका वर्णन किया है और न बारह व्रतोके अतीचारोका ही। प्रथम प्रकारका अनुसरण करनेवाले प्राचार्योंमे से स्वामिकार्तिकेयको छोड़कर शेष सभीने सल्लेखनाको चौथा शिक्षाबत माना है। उक्त तीनो प्रकारोंमेसे यह प्रथम प्रकार ही आद्य या प्राचीन प्रतीत होता है, क्योकि धवला और जयधवला टीकामे श्रा० वीरसेनने उपासकाध्ययन नामक अंगका स्वरूप इस प्रकार दिया है-- १--उवासयज्झयणं णाम अंगं एक्कारस लक्ख-सत्तरि सहस्स पदेहिं ११७०००० पदेहि 'दसण वद'....'इदि एक्कारसविहउवासगाणं लक्खणं तेसि च वदारोवण-विहाणं तेसिमाचरणं च वएणेदि । (पटखंडागम भा० १ पृ० १०२) २-उवासयज्झयणं णाम अंग दंसण-वय-सामाइय-पोसहोववास-सचित्त-रायिभत्त बंभारंभपरिग्गहाणुमणुद्दिढणामाणमेकारसरहमुवासयाणं धम्ममेक्कारसविहं वणणेदि । (कसायपाहुड भा० १ पृ० १३०) अर्थात् उपासकाध्ययननामा सातवाँ अग दर्शन, व्रत, सामायिक आदि ग्यारह प्रकारके उपासकोका लक्षण, व्रतारोपण आदिका वर्णन करता है । स्वामिकार्तिकेय के पश्चात् ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर श्रावक-धर्म का प्रतिपादन करनेवाले श्रा० वसुनन्दि हैं। इन्होंने अपने उपासकाध्ययन में उसी परिपाटी का अनुसरण किया है, जिसे कि श्रा० कुन्दकुन्द और स्वामिकार्तिकेय ने अपनाया है। स्वामिकार्तिकेय ने सम्यक्त्व की विस्तृत महिमा के पश्चात् ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर बारह व्रतों का स्वरूप निरूपण किया है। पर वसुनन्दि ने प्रारम्भ में सात व्यसनों का और उनके दुष्फलो का खूब विस्तार से वर्णन कर मध्य में बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाओं का, तथा अन्त में विनय, वैयावृत्त्य, पूजा, प्रतिष्ठा और दान का वर्णन भी खूब विस्तार से किया है। इस प्रकार प्रथम प्रकार प्रतिपादन करनेवालों मे तदनुसार श्रावक धर्म का प्रतिपादन क्रम से विकसित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। (२) द्वितीय प्रकार अर्थात् बारह व्रतोंको आधार बनाकर श्रावकधर्मका प्रतिपादन करनेवाले श्राचार्योंमें उमास्वाति और समन्तभद्र प्रधान हैं। श्रा. उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायमे श्रावक-धर्मका वर्णन किया है। इन्होंने व्रतीके श्रागारी और अनगारी भेद करके अणुव्रतधारीको आगारी बताया और उसे तीन गुणवत, चार शिक्षाबत रूप सप्त शीलसे सम्पन्न कहा। श्रा० उमास्वातिने ही सर्वप्रथम बारह व्रतोंके पाँच-पाँच अतीचारोंका वर्णन किया है। तत्त्वार्थसूत्रकारने अतीचारोका यह वर्णन कहाँ से किया, यह एक विचारणीय प्रश्न है। इसके निर्णयार्थ जब हम वर्तमानमें उपलब्ध समस्त दि० श्वे. जैन वाङ्मयका अवगाहन करते हैं, तब हमारी दृष्टि उपासकदशा-सूत्र पर अटकती है। यद्यपि वर्तमानमें उपलब्ध यह सूत्र तीसरी वाचनाके बाद लिपि-बद्ध हुआ है, तथापि उसका आदि स्रोत तो श्वे. मान्यताके अनुसार भ० महावीरकी वाणीसे ही माना जाता है । जो हो, चाहे अतीचारोंके विषयमें उमास्वातिने उपासकदशासूत्रका अनुसरण किया हो और चाहे उपासकदशासूत्रकारने तत्त्वार्थसूत्रका, पर इतना निश्चित है कि दि० परम्परामें उमास्वातिसे पूर्व अतीचारोंका वर्णन किसीने नहीं किया। १ देखो तत्त्वार्थ० अ०७, सू० १८-२१.

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