________________
अगिलायओ।
अब शिष्य के कर्त्तव्य के विषय में कहते हैंवेयावच्चे निउत्तेणं, कायव्वं सज्झाए वा निउत्तेणं, सव्वदुक्खविमोक्खणे ॥ १० ॥ वैयावृत्ये नियुक्तेन, कर्तव्यमग्लान्या । स्वाध्याये वा नियुक्तेन सर्वदुःखविमोक्षणे ॥ १० ॥
पदार्थान्वयः - वेयावच्चे - वैयावृत्य में, निउत्तेणं - नियुक्त करने पर, अगिलायओ - ग्लानिभाव को छोड़कर, कायव्वं करना चाहिए, वा- अथवा, सज्झाए - स्वाध्याय में, निउत्तेणं-नियुक्त करने से, सव्व- सर्व, दुक्ख - दु:खों से, विमोक्खणे-विमुक्त करने वाले ।
मूलार्थ - वैयावृत्य में नियुक्त कर देने पर शिष्य ग्लानि से रहित होकर वैयावृत्य में प्रवृत्त होवे, अथवा स्वाध्याय में नियुक्त किए जाने पर सर्व दुःखों से छुड़ाने वाले स्वाध्याय में ग्लानिभाव से रहित होकर प्रवृत्ति करे ।
टीका - प्रस्तुत गाथा में गुरु की आज्ञा के अनुसार वैयावृत्य में अथवा स्वाध्याय में भाव - पूर्वक प्रवृत्त होने का आदेश दिया गया है। जैसे कि - आज्ञा मांगने पर गुरु ने यदि वैयावृत्य में नियुक्त होने की आज्ञा दी हो तो बिना किसी प्रकार की ग्लानि के, अर्थात् अपने शारीरिक बल का कुछ भी विचार न करते हुए विशुद्ध भाव से वैयावृत्य अर्थात् सेवा में लग जाना चाहिए। यदि गुरुओं ने स्वाध्याय की आज्ञा प्रदान की हो तो प्रेम - पूर्वक स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जाना चाहिए । स्वाध्याय - तप सर्व तपों में प्रधान और सर्व प्रकार के दुःखों से छुड़ाने वाला है।
सारांश यह है कि स्वाध्याय के अनुष्ठान से ज्ञानावरणीय कर्म प्रकृतियों का क्षय होता है। जब अज्ञान नष्ट हो जाता है तब मोहनीय आदि कर्म भी नहीं रह सकते और मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने से अवशिष्ट सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। इसलिए स्वाध्याय के आचरण से दुःखों का समूलघात हो जाता है। अतएव स्वाध्याय और वैयावृत्य में गुरुजनों की आज्ञा के अनुसार शीघ्र ही प्रवृत्त हो जाना चाहिये । अब औत्सर्गिक भाव से साधु की दिनचर्या के विषय में कहते हैं, यथादिवसस्स चउरो भागे, भिक्खू कुज्जा वियक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुज्जा, दिणभागेसु चउसु वि ॥ ११ ॥
दिवसस्य चतुरो भागान् कुर्याद् भिक्षुर्विचक्षणः । तत उत्तरगुणान्कुर्यात्, दिनभागेषु चतुर्ष्वपि ॥ ११ ॥
पदार्थान्वयः - दिवसस्स - दिन के, चउरो - चार, भागे-भागों को, वियक्खणो- विचक्षण, भिक्खू - भिक्षु, कुज्जा- अपनी बुद्धि से कल्पना करे, तओ - तदनन्तर, उत्तरगुणे - उत्तरगुणों को करे, चउसु विचारों ही, दिणभागेसु - दिन भागों में।
मूलार्थ- विचक्षण बुद्धिमान् भिक्षु दिन के चार भागों की कल्पना करके उन चारों में ही
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२६] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं.