________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 39 स्यात्प्रमाता प्रमाणं स्यात्प्रमिति: स्वप्रमेयवत् / एकांताभेदभेदौ तु प्रमात्रादिगतौ क्व नः॥२०॥ एकस्यानेकरूपत्वे विरोधोपि न युज्यते। मेचकज्ञानवत्प्रायश्चिंतितं चैतदंजसा // 21 // यथैव हि मेचकज्ञानस्यैकस्यानेकरूपमविरुद्धमबाधितप्रतीत्या रूढत्वात् तथात्मनोपि तदविशेषात् / न ह्ययमात्मार्थग्रहणयोग्यतापरिणतः सन्निकर्षाख्यं प्रतिपद्यमानोप्रबाधप्रतीत्यारूढो न भवति येन कथंचित्प्रमाणं न स्यात्। नाप्ययमव्यापृतावस्थोऽर्थग्रहणव्यापारांतरस्वार्थविदात्मको न प्रतिभाति येन कथंचित्प्रमितिर्न भवेत् / न चायं प्रमितिप्रमाणाभ्यां कथंचिदर्थांतरभूतः स्वतंत्रो न चकास्ति येन प्रमाता न स्यात्॥ समाधान : यह भी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि किसी अपेक्षा उनमें अभेद भी हमको इष्ट है। सो ही कहते हैं प्रमाता अपने को जानते समय जैसे स्वयं अपना प्रमेय बन जाता है, वैसे ही वह प्रमाता कथंचित् प्रमाणरूप भी है और कथंचित् प्रमितिस्वरूप भी है। प्रमाता, प्रमिति, प्रमाण और प्रमेय में एकान्तरूप से सर्वथा भेद अभेदों को हमने कहाँ माना है अर्थात् कहीं भी नहीं माना है। एक पदार्थ को अनेक रूप मानने में विरोध दोष देना भी युक्त नहीं है, क्योंकि जैसे बौद्ध या नैयायिकों द्वारा माने गये एक चित्र-ज्ञान में अनेक नील, पीत आदि आकार प्रतिभास होते हैं; उसी प्रकार एक आत्मा में वास्तविक परिणति के अनुसार प्रमेयपन, प्रमितिपन आदि स्वभाव बन जाते हैं। इस तत्त्व की हम पूर्व प्रकरण में विस्तार के साथ विचारणा या विवेचन कर चुके हैं / / 20-21 // बाधा रहित प्रतीति से अनेक स्वभाव एक में आरूढ़ होने से जिस प्रकार एक चित्रज्ञान का अनेक स्वरूप होना अविरुद्ध है, उसी प्रकार एक आत्मा के भी वह अनेक रूपपना अविरुद्ध है। इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। तथा अर्थग्रहण योग्यतारूप परिणाम से परिणमन करती हुई यह आत्मा सन्निकर्ष इस संज्ञा को प्राप्त करती हुई निर्बाध प्रतीति से आरूढ़ नहीं हो रही है। ऐसा नहीं है जिससे कि वह विलक्षण संनिकर्ष रूप आत्मा कथंचित् प्रमाण न हो। अर्थात् आत्मा कथंचित् प्रमाण रूप भी है-क्योंकि ऐसी निर्बाध प्रतीति हो रही है। अतः कथंचित् सन्निकर्ष इस संज्ञा को आत्मा प्राप्त हो रही है। अर्थ ग्रहण के सम्मुख होने से सन्निकर्ष प्रमाणरूप आत्मा है। तथा यह आत्मा क्रियात्मक व्यापार रूप अवस्था से रहित होकर अन्य अर्थग्रहणरूप व्यापार में स्व और अर्थ की ज्ञप्ति स्वरूप नहीं देख रही है, यह भी नहीं समझना जिससे कि वह आत्मा कथंचित् प्रमिति रूप न हो सके। अर्थात् प्रमाणात्मा ही विशेष अवस्था में प्रमितिरूप है। यह आत्मा प्रमिति और प्रमाण से कथंचित् भिन्न स्वतंत्र प्रतिभासित नहीं हो रही है। यह भी नहीं समझना जिससे कि प्रमाता न हो सके। भावार्थ : आत्मा स्वतंत्र कर्ता, स्वतंत्र प्रमाता भी है।