________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 282 बाधशून्यत्वं मासिधत् / तत्रापि प्रतिभासमात्रस्य बाधानुपलभ इति चेत् चंद्रद्वयादिवेदनेपि विशेषमात्रप्रतिभासे बाधानुपलंभ एवेत्युपालंभसमाधानानां समानत्वादलमतिनिर्बधनेन / ननु च विषयस्य सत्यत्वे संवेदनस्य सत्यत्वमिति न्याये प्रतिभासमात्रमेव परमब्रह्म सत्यं तद्विषयस्य सन्मात्रस्य सत्यत्वान्न भेदज्ञानं तद्गोचरस्यासत्यत्वादिति मतमनूद्य दूषयन्नाह;ननु सन्मात्रकं वस्तु व्यभिचारविमुक्तितः। न भेदो व्यभिचारित्वात्तत्र ज्ञानं न तात्त्विकम् / / 8 // इत्ययुक्तं सदाशेषविशेषविधुरात्मनः। सत्त्वस्यानुभवाभावाद्भेदमात्रकवस्तुवत् // 9 // दृष्टेरभेदभेदात्मवस्तुन्यव्यभिचारतः। पारमार्थिकता युक्ता नान्यथा तदसंभवात् // 10 // न हि सकलविशेषविकलं सन्मात्रमुपलभामहे नि: सामान्यविशेषवत् सत्सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनो दर्शनात् / न च तद्व्यभिचारोस्ति के नचित्सद्विशेषणरहितस्य सन्मात्रस्योपलंभेपि सद्विशेषांतरबाधारहितपना सिद्ध नहीं होता है। यदि वेदान्ती कहे कि दूर से बगीचे में वकुल, तिलक आदि अनेक वृक्ष समुदित होकर एक दिख रहे हैं, किन्तु निकट आकर भिन्न-भिन्न होकर विशद दिखते हैं, और फिर भी वहाँ सामान्य प्रतिभास होने की कोई बाधा नहीं है, चाहे भिन्न दिखें या अभिन्न, सामान्य प्रतिभास होने में तो कोई बाधा नहीं है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि दो चन्द्रमा आदि के ज्ञानों में भी केवल विशेष अंश (विशेष्यदल के प्रतिभासने) में तो कोई बाधा नहीं दीखती है। केवल विशेषणभूत संख्या का अतिक्रमण होता है। इस प्रकार हमारे तुम्हारे दोनों के यहाँ उलाहने और समाधान समान हैं। अत: भेदप्रतिभास या अभेद प्रतिभास के प्रकरण को अधिक बढ़ाना उपयुक्त नहीं है। यहाँ अद्वैतवादियों की शंका है कि विषय के सत्य होने पर उसको जानने वाले ज्ञान की सत्यता मानी जाती है। इस प्रकार न्याय हो जाने पर प्रतिभास मात्र ही परमब्रह्म सत्य है अत: उसको विषय करने वाला केवल शुद्ध सत् का अभेदज्ञान ही सत्य है। भेदज्ञान सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि उसका विषय भेद पदार्थ असत्य है, अपरमार्थ है। इस प्रकार के अद्वैतमत का अनुवाद कर उसको दूषित करते हुए आचार्य स्पष्ट कथन करते हैं शंका : (अद्वैतवादी कहते हैं कि) व्यभिचार रहित होने से केवल शुद्ध सत् ही परमार्थ वस्तु है। विशेषरूप से दृष्टिगोचर होने से भेद यथार्थ नहीं है, क्योंकि भेद का ज्ञान होना व्यभिचार दोष से युक्त है। समाधान : अद्वैतवादियों का यह कहना युक्तिरहित है, क्योंकि सम्पूर्ण विषयों से रहित सत्त्वस्वरूप का सर्वदा अनुभव नहीं होता है। जैसे कि सामान्य से सर्वथा रहित केवल विशेषस्वरूप वस्तु की कभी भी प्रतीति नहीं होती है किन्तु अभेद और भेदस्वरूप वस्तु में व्यभिचार से रहित प्रतीति ही पारमार्थिक युक्त है। अन्यथा अर्थात् बौद्धों के केवल विशेष अंश को जानने वाले निर्विकल्पक दर्शन को और अद्वैतवादियों के शुद्ध सामान्यसत्ता को प्रकाशित करने वाले दर्शन को तात्त्विकपना नहीं है, क्योंकि सामान्य के बिना केवल विशेष का और विशेष के बिना केवल सामान्य का रहना असम्भव है॥८-९-१०॥ ___सम्पूर्ण विषयों से सर्वथा रहित शुद्ध सन्मात्र को हम कभी भी नहीं देख रहे हैं जैसे कि सामान्य से सर्वथा रहित विशेष कभी देखा नहीं जाता है अर्थात् सबको उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य वाले सामान्य