________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 341 भाविभ्यां तिरोहितत्वान्न तत्रादर्शनमस्पर्शनं वा स्यादिति चेत्। नन्वेवं तदुत्पादस्य पूर्वोत्तरविनाशाभ्यामाशु भाविभ्यामेव विरोधान्नदर्शनस्पर्शने माभूतां तदुत्पादयोः स्वमध्यगतविनाशतिरोधाने सामर्थ्य भावस्वभावत्वेन बलीयस्त्वात तद्विनाशयोः स्वमध्यगतोत्पादतिरोधानेऽभावस्वभावत्वेन दुर्बलत्वादिति चेन्न. भावाभावस्वभावयोः समानबलत्वात्। तयोरन्यतरबलीयस्त्वे युगपद्भावाभावात्मकवस्तुप्रतीतिविरोधात्। न हि वस्तुनो भाव एव कदाचित्प्रतीयते स्वरूपादिचतुष्टयेनेव पररूपादिचतुष्टयेनापि भावप्रतीतिप्रसक्तेः। न पर उसका अदर्शन और अस्पर्शन होना चाहिए। देखना, छूना बीच-बीच में रुक जाना चाहिए। वहाँ स्फटिक का चाक्षुष प्रत्यक्ष और स्पार्शन प्रत्यक्ष करने में उपयोग लगा रहे किसी भी जीव के हो रहे दर्शन और स्पर्शन तो अदर्शन और अस्पर्शन से व्यवहित अनुभूत नहीं किये जा रहे हैं अर्थात् स्फटिक को देखने छूने वाला मनुष्य बड़ी देर तक उसी स्फटिक को देखता, छूता रहता है। अतः स्फटिक का शीघ्र उत्पाद, विनाश मानना अनुचित है। अतिशीघ्र होने वाले पूर्व समय के उत्पाद और उत्तरवर्ती समय के उत्पाद के द्वारा, आगे पीछे के उत्पाद के द्वारा उस स्फटिक के मध्यवर्ती विनाश का तिरोभाव हो जाता है अत: उपयुक्त जीव को अदर्शन अथवा अस्पर्शन नहीं होते हैं। आगे पीछे होने वाले उत्पाद मध्य के विनाश को छिपा देते हैं। इस प्रकार वैशेषिकों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो द्वितीय समय का पहला विनाश और चतुर्थ समय का विनाश - इन शीघ्र होने वाले दो विनाशों के द्वारा ही उस स्फटिक के तृतीय समयवर्ती मध्य के उत्पाद का विरोध हो जाने के कारण उस स्फटिक के दर्शन और स्पर्शन नहीं होने चाहिए। - स्फटिक के इधर-उधर के दो उत्पादों की अपने मध्य में पड़े हुए विनाश को तिरोभाव करने का सामर्थ्य है। उत्पत्ति भाव स्वरूप पदार्थ है और विनाश अभाव स्वरूप पदार्थ है। अभाव की अपेक्षा भावपक्ष विशेष बलवान होता है अत: उस स्फटिक के पर्यायों में पहले पीछे पड़े हुए दो विनाशों को अपने मध्य में प्राप्त उत्पाद के तिरोधान करने में अभावस्वभावपना हो जाने के कारण दुर्बलपना है अर्थात् अभाव को छिपा नहीं सकता परन्तु भाव अभाव को छिपा देता है। _इस प्रकार नहीं कहना चाहिए क्योंकि वस्तु के अनुजीवी, प्रतिजीवी गुणस्वरूप भाव, अभाव दोनों को समान बलसहितपना है। दोनों का सामर्थ्य बराबर एक सा है। उन भाव-अभाव दोनों में से किसी एक को यदि अधिक बलवान माना जाएगा तो युगपत् भाव अभावस्वरूप वस्तु की प्रतीति का विरोध आएगा। अर्थात् एक बलवान से दूसरे निर्बल भाव या अभाव की हत्या कर देने पर वस्तु में एक ही समय में भाव और अभाव दोनों नहीं पाये जा सकेंगे। किन्तु वस्तु सदा ही भाव, अभाव दोनों के साथ तदात्मक रूप से प्रतीत हो रही है। इसमें विरोध का अभाव है अतः भाव और अभाव दोनों समान बल वाले होते हुए वस्तु में अपना ज्ञान और अर्थक्रियाओं को कराते हैं। __ वस्तु का भाव स्वभाव ही दीखे ऐसा कभी प्रतीत नहीं होता है अन्यथा स्वरूप आदि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों के चतुष्टय करके जैसे वस्तु का अस्तित्व माना जाता है, वैसे ही पररूप आदि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के चतुष्टय करके भी वस्तु के सद्भाव की प्रतीति होने का प्रसंग आएगा।