Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 03
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 383
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 378 शेमुषीपूर्वतासिद्धिर्वाचां किं नानुमन्यते। ननु ज्ञाननिमित्तत्वं वाचामुच्चारणस्य नः॥३४॥ सिद्धं नापूर्णरूपेण प्रादुर्भावः कदाचन / कर्तुरस्मरणं तासां तादृशीनां विशेषतः // 35 // पुरुषार्थोपयोगित्वभाजामपि महात्मनां। नैवं सर्वनृणां कर्तुः स्मृतेरप्रतिषिद्धितः॥३६॥ तत्कारणं हि काणादाः स्मरंति चतुराननं / जैना: कालासुरं बौद्धाः स्वाष्टकात्सकला: सदा // 37 // सर्वे स्वसंप्रदायस्याविच्छेदेनाविगानतः। नानाकर्तृस्मृतेर्नास्ति तासां कर्तेत्यसंगतं // 38 // अपूर्व (नवीन) स्वरूप से बुद्धि द्वारा शब्दों का कभी भी उत्पाद होना सिद्ध नहीं है, क्योंकि उस प्रकार के उन अपौरुषेय वचनों के बनाने वाले कर्ता का विशेषरूप से स्मरण नहीं होता है। आत्मा के पुरुषार्थ करने में उपयोग सहितपने के धारक महात्माओं को भी वेद के कर्ता का स्मरण नहीं होता है। समाधान : आचार्य कहते हैं कि मीमांसकों को इस प्रकार नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सभी मनुष्यों को वेद के कर्ता की स्मृति हो जाने का प्रतिषेध नहीं है। अर्थात् बहुत से विचारशील मनुष्य वेद / के कर्ता का स्मरण करते हैं। कणाद मत के अनुयायी वैशेषिक, वेद के कर्ता ब्रह्मा का स्मरण कर आराधना करते हैं और जैन जन वेद के कर्ता कालासुर को कहते हैं। सम्पूर्ण बौद्धों के यहाँ अपने-अपने अंशों को बनाने वाले आठ विद्वानों को वेद का कर्ता माना गया है। यह सब अपने-अपने ऋषियों की आम्नाय से चले आये शास्त्र प्रवाह अनुसार वेदकर्ताओं का कुछ को छोड़कर सभी जीवों को सदा स्मरण होरहा है अत: कर्ता का अस्मरण होना वेद या अन्य शब्दों को नित्यपना सिद्ध करने के लिए उपयोगी नहीं है // 31-3233-34-35-36-37 // ___ मीमांसक कहते हैं कि वैशेषिक, जैन, बौद्ध आदि वेदकर्ता वादी सभी विद्वान् अपनी-अपनी सर्वज्ञमूलक ऋषि-सम्प्रदाय का मध्य में विच्छेद नहीं होने के कारण अनिन्दित रूप से चतुर्मुख, कालासुर, अष्टक आदि अनेक कर्ताओं का स्मरण करते हैं अतः प्रतीत होता है कि वेद का कर्ता कोई नहीं है, तभी तो निर्णीतरूप से एक कर्ता का ज्ञान नहीं हो पाता है। भावार्थ : यदि वेद का ही कोई कर्ता होता तो एक ही विद्वान् होकर स्मृत किया जाता। किन्तु यहाँ कोई किसी को और कोई अन्य को कर्ता स्मरण कर रहा है अत: वेद का कोई कर्ता नहीं है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार मीमांसकों का कहना तो असंगत है, क्योंकि भिन्न-भिन्न शाखाओं के खण्डरूप से अनेक कर्ताओं की स्मृति हो जाने से वेद का बहुत कर्ताओं के द्वारा बनाया गयापन सिद्ध हो जाता है। जैसे कि उस प्रकार के अन्य शास्त्र कोई-कोई अनेक विद्वानों के बनाये हुए हैं। यदि मीमांसकजनों के यहाँ वेद को नित्य, अपौरुषेय सिद्ध करने के लिए कर्ता का स्मरण नहीं होना हेतु इष्ट किया जायेगा तो वेद का अपौरुषेयपना अपने घर की मान्यता ही समझना चाहिए। जबकि वेद के कर्ता का स्मरण हो रहा है। यों तो कोई पुराने खण्डहर, कुआ आदि को भी अपौरुषेय कहना चाहिए, क्योंकि उसको भी अपने घर में खडैरा के कर्ता का स्मरण नहीं हो रहा है। 1. मधुपिंगल का जीव जिसने असुर पर्याय में पर्वत का सहायक बन यज्ञ धर्म की स्थापना की।

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