________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 398 ननु च श्रोत्रग्राह्या पर्यायरूपा वैखरी मध्यमा च वागुक्ता शब्दाद्वैतवादिभिर्यतो नामांतरमात्रं तस्याः स्यान्न पुनरर्थभेद इति / नापि पश्यंती वागवाचकविकल्पलक्षणा सूक्ष्मा वा वाक् शब्दज्ञानशक्तिरूपा। किं तर्हि / स्थानेषूरःप्रभृतिषु विभज्ययमाने विवृते वायौ वर्णत्वमापद्यमाना वक्तृप्राणवृत्तिहेतुका वैखरी। “स्थानेषू विवृते वायौ कृतवर्णत्वपरिग्रहः। वैखरी वाक् प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्धना” इति वचनात्। तथा मध्यमा केवलमेव बुद्ध्युपादाना क्रमरूपानुपातिनी वक्तृप्राणवृत्तिमतिक्रम्य प्रवर्तमाना निश्चिता “केवलं बुद्ध्युपादाना जघन्यज्ञान उत्पन्न होता है। इस ज्ञान में भी अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं, क्योंकि शक्ति के अंशों की जघन्य वृद्धि को अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं। यह सबसे छोटा ज्ञान भी जघन्य अन्तरों से अनन्तगुणा है। अत: इस ज्ञान में अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेद माने गये हैं। स्पर्शन इन्द्रियजन्य मतिअज्ञानपूर्वक यह लब्ध्यक्षर श्रुताज्ञान है। ये कारण कार्यस्वरूप दोनों ज्ञान कुज्ञान हैं। किसी भी जीव को कदापि इससे न्यूनज्ञान प्राप्त होने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ और न ही होगा। इतना श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम सदा ही बना रहता. . है अत: लब्धि (सबसे छोटे क्षयोपशमजन्य ज्ञान) अक्षर (यानी अविनश्वर) है। इतना ज्ञान भी यदि नष्ट हो जाय तो आत्मद्रव्य का ही नाश हो जाएगा // 114-115 // अत: इस प्रकरण में श्री अकलंकदेव के वचन की बाधा कभी-भी संभव नहीं है, क्योंकि उस प्रकार के सर्वज्ञोक्त सम्प्रदाय का विच्छेद नहीं हुआ है। तथा शब्द की योजना से ही श्रुत होता है, इस सिद्धान्त में भी पूर्वोक्तानुसार युक्तियों का अनुग्रह हो रहा है, अर्थात् यह कथन युक्तिसिद्ध भी है॥११६॥ शंका : श्रोत्र से ग्रहण करने योग्य वैखरी और मध्यमा वाणी जो शब्दाद्वैतवादियों के द्वारा कही गयी है, वह जैनों द्वारा मानी गयी पर्यायरूप वाणी नहीं है, जिससे कि उसके केवल नाम का अन्तर समझकर उस पर्याय वाणी का दूसरा नाम ही मध्यमा या वैखरी हो जाये और अर्थभेद नहीं हो सके। तथा वाचकों के विकल्पस्वरूप लक्षणवाली पश्यन्ती वाणी भी नहीं मानी गई है। शब्दाद्वैतवादियों के यहाँ शब्दशक्तिस्वरूप या व्यक्तिस्वरूप सूक्ष्मावाणी नहीं मानी गई है। शब्दाद्वैतवादियों के यहाँ वैखरी आदि वाणी कैसी मानी गयी ___समाधान : इसका उत्तर यह है कि “छाती, कंठ, तालु इत्यादि स्थानों में विभाग को प्राप्त वायु के रुककर फट जाने पर वह जो वायु हकार, ककार, इकार आदि वर्णपने को प्राप्त और शब्दप्रयोक्ताओं की प्राणवृत्ति की कारणभूत वैखरी वाणी है ऐसा ग्रन्थ का वचन है। अर्थात् जैसे तुम्बी, बांसुरी आदि के छेदों में से मुखवायु विभक्त होती हुई मिष्ट स्वरों में परिणत हो जाती है, तथैव कानों से सुनने योग्य मोटी वैखरी वाणी शब्दब्रह्म का विवर्त है। (पर्याय है) ___ तथा शब्दाद्वैतवादियों के द्वारा स्वीकृत मध्यमा वाणी केवल बुद्धि को ही उपादान कारण मानकर क्रम से होने वाले अपने स्वरूप के अनुसार चली आ रही है और वक्ता की प्राणवृत्ति का अतिक्रमण कर प्रवृत्त होती है। हमारे दर्शन में इस प्रकार लिखा है कि केवल बुद्धि को उपादान कारण मानकर उत्पन्न और क्रमरूप से अनुपात करने वाली तथा श्वासोच्छ्वास की प्रवृत्ति का अतिक्रमण कर मध्यमा वाणी प्रवृत्त होती