________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 396 यदक्षरं / विवर्तेतार्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः॥” इति यतस्तस्य चतस्रोवस्था वैखर्यादयः संभाव्यते सत्योऽसत्यो वा। न च तदसंभवेनायं सर्वत्र प्रत्यये शब्दानुगमः सिद्ध्येत् सूक्ष्मायाः सर्वत्र भावात् / यतोभिधानापेक्षायामक्षादिज्ञानेन्योन्याश्रयोऽनवस्था न च स्यात्सर्वथैकांताभ्युपगमात्॥ स्याद्वादिनां पुनर्वाचो द्रव्यभावविकल्पतः। द्वैविध्यं द्रव्यवाग्द्वधा द्रव्यपर्यायभेदतः // 106 // श्रोत्रग्राह्यात्र पर्यायरूपा सा वैखरी मता। मध्यमा च परैस्तस्याः कृतं नामांतरं तथा // 107 // द्रव्यरूपा पुनर्भाषावर्गणाः पुद्गलाः स्थिताः। प्रत्ययान्मनसा नापि सर्वप्रत्ययगामिनी // 10 // भाववाग्व्यक्तिरूपात्र विकल्पात्मनिबंधनं। द्रव्यवाचोभिधा तस्याः पश्यंतीत्यनिराकृता // 10 // होती हैं, और उन चार अवस्थाओं के असम्भव हो जाने से सम्पूर्ण ज्ञानों में यह शब्दों का अनुगम करना तो सिद्ध नहीं हो सकता कि सूक्ष्मा वाणी सभी ज्ञानों में विद्यमान है। ज्ञानों में शब्द के द्वारा अनुविद्धपना नहीं है, जिससे कि अन्य वाचक शब्दों की अपेक्षा करते-करते इन्द्रियजन्य, लिंगजन्य आदि ज्ञानों में अन्योन्याश्रय और अनवस्था दोष नहीं हो सके। अर्थात् ज्ञान को चारों ओर से शब्द से गुंथा हुआ मानने पर अन्योन्याश्रय और अनवस्था दोष आते हैं, क्योंकि शब्दाद्वैतवादियों ने सभी प्रकारों से शब्दानुविद्धपने का एकान्त चारों ओर स्वीकार कर लिया है अतः शब्द का संसर्ग करने पर उसी सम्वेदन और अन्य संवेदनों द्वारा जानने में उक्त दोष उपस्थित हो जाते हैं। पुनः, स्याद्वादियों के यहाँ द्रव्यवचन और भाववचन के विकल्प से वचनों को दो प्रकार का माना है। उनमें द्रव्यवचन, द्रव्य और पर्याय के भेद से दो प्रकार का है। श्रोत्र इन्द्रिय से ग्रहण करने योग्य वचन पर्यायरूप वाक् है। दूसरों ने (मीमांसक) आदि ने उस पर्यायरूप वचन को ही वैखरी और मध्यमा ये दूसरे नाम दिये हैं। अत: शब्द मात्र भेद है। तात्पर्य अर्थ एक ही है। पुद्गल की कर्ण इन्द्रिय से ग्रहण करने योग्य पर्याय को शब्द माना गया है॥१०६-१०७॥ द्रव्यस्वरूप भाषावर्गणा स्थित पुद्गल कण्ठ, तालु आदि का निमित्त पाकर अकार, ककार, अक्षरात्मक या अनक्षरात्मक शब्द रूप परिणत होते हैं। वे द्रव्यवाक् ज्ञान और मन के द्वारा भी सम्पूर्ण ज्ञानों में अनुगम करने वाले नहीं हैं क्योंकि व्यक्तिरूप भाववाक् ही पौलिक विकल्पज्ञान और द्रव्यवाक् के आत्मलाभ का कारण है। भाववाक् भी व्यक्तिस्वरूप और शक्तिस्वरूप दो प्रकार का है। उस भाववाणी की संज्ञा यदि अद्वैत वादियों ने पश्यन्ती रख दी है तो उसका निराकरण नहीं किया जाता है। शब्दाद्वैतवादियों ने विकल्पस्वरूप निश्चयात्मक पश्यन्ती वाणी मानी है। जैन ग्रन्थों में भी वीर्यान्तराय और मतिश्रुत ज्ञानावरण कर्मों का क्षयोपशम होने पर तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय का पूर्णलाभ होने पर होने वाले विकल्पों का यथायोग्य अन्तर्जल्प कहा है। यह पश्यन्ती या भाववाक् द्रव्यवाणी की उत्पत्ति का कारण है। यह भाववाक् का पहिला व्यक्तिरूप भेद है॥१०८-१०९॥