________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 405 . साधकतमत्वाद्विसंवादकत्वाभावादप्रमाणत्वायोगात्। अथ रूपकाद्यलंकारभाजोऽपि वाक्यविशेषादुपजातमर्थज्ञानं श्रुतमेव प्रवचनमूलत्वाविशेषादिति मतिस्तदोपमानवाक्योपजनितमपि वेदनं श्रुतज्ञानमभ्युपगन्तव्यं तत एवेत्यलं प्रपंचेन / प्रतिभा किं प्रमाणमित्याह;उत्तरप्रतिपत्त्याख्या प्रतिभा च श्रुतं मता। नाभ्यासेजा सुसंवित्तिः कूटद्रुमादिगोचरा // 125 // उत्तरप्रतिपत्तिः प्रतिभा कैश्चिदुक्ता सा श्रुतमेव, न प्रमाणान्तरं, शब्दयोजनासद्भावात् / के वाक्यों से उत्पन्न हुए विज्ञान को भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेगा। क्योंकि उन रूपक, समासोक्ति आदि वाक्यों द्वारा उत्पन्न हुए विज्ञानों को भी अपने विषय की प्रमिति में साधकतमपना होने से विसंवादकपने का अभाव है अत: अप्रमाण का अयोग है अर्थात् उपमान प्रमाण के समान अलंकार वाक्यों को भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेगा। . अथवा रूपक, प्रतिवस्तु, उपमा आदि अलंकारों को धारने वाले वाक्य विशेषों से उत्पन्न हुआ अर्थज्ञान श्रुत ही है, क्योंकि प्रवचन को मूल कारण मानकर उत्पन्न हुआ ज्ञानपना उक्त ज्ञानों में विशेषताओं से रहित है। अर्थात् जिनके प्रकृष्टवचन हैं, उन आप्त पुरुषों के द्वारा उच्चारित किए गए वचनों के निमित्त से रूपक आदि उपाधियों से युक्त ज्ञान हो जाते हैं "प्रकृष्टं वचनं यस्य" ऐसा विग्रह करने से रूपक आदि सहित अर्थों का ज्ञान हो जाता है। पृथक्-पृथक् कहे हुए दो वाक्यों का जहाँ वस्तुस्वभाव करके सामान्य का कथन किया जाता है, वह प्रतिवस्तु उपमा है, जैसे कि स्वर्ग लोक का पालन करने में एक इन्द्र ही समर्थ है, छह खण्डों को पालने में एक चक्रवर्ती ही समर्थ है। इसी प्रकार गगन, गगन के ही आकार वाला है। समुद्र समुद्रसरीखा ही गंभीर है, इत्यादि अनन्वय अलंकार के उदाहरण हैं। इन अलंकारों से युक्त कविवाक्यों को सनकर जो ज्ञान होता है, वह शाब्दबोध में अन्तर्भत हो जाता है-ऐसा मानना चाहिए अतः प्रवचन रूप निमित्त से उत्पन्न होने के कारण श्रुतज्ञानपना इष्ट कर लेना चाहिए। अधिक विस्तार करने से क्या प्रयोजन है? किसी का प्रश्न है कि प्रतिभा कौनसा प्रमाण है? इस प्रश्न का आचार्य महाराज स्पष्ट उत्तर देते हैं देश, काल, प्रकरण अनुसार उत्तर की शीघ्र प्रतिपत्ति हो जाना प्रतिभा नाम का ज्ञान है। और वह प्रतिभा श्रुत ही मानी गई है, क्योंकि अभ्यन्तर या बहिरंग में शब्दयोजना करने से वह प्रतिभा उत्पन्न होती है अतः श्रतज्ञान में ही उसका अन्तर्भाव है। शब्दों के बिना ही अत्यन्त अभ्यास से जो शीघ्र ही उत्तर प्रतिपत्तिस्वरूप सम्वेदन हो जाता है, वह प्रतिभा श्रुत नहीं है, किन्तु मतिज्ञान है। जैसे कि शिखर, धान्य राशि या वृक्ष आदि को विषय करने वाली प्रतिभा मतिज्ञान है अर्थात् प्रज्ञा, मेधा, मनीषा, प्रेक्षा, प्रतिपत्ति, प्रतिभा, स्फूर्तिआदिक ज्ञान सब मतिज्ञान के विशेष हैं। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि भी शब्द योजना हो जाने पर श्रुतज्ञान कहे जाते हैं। शब्द योजना के पूर्व वे मतिज्ञान हैं॥१२५॥ विशिष्ट क्षयोपशम अनुसार प्रथम से ही उत्तर की समीचीन प्रतिपत्ति हो जाना प्रतिभा है। किन्हीं लोगों ने उसे पृथक् प्रमाण कहा है। किन्तु जैन सिद्धान्तानुसार वह प्रतिभा श्रुतज्ञान का भेद है। श्रुत से पृथक् प्रमाणस्वरूप नहीं है, क्योंकि इसमें वाचक शब्दों की योजना का सद्भाव है।