Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 03
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 381
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 376 भिन्नाभिन्नात्मकत्वे तु संबंधस्य ततस्तव। शब्दस्य बुद्धिपूर्वत्वं व्यक्तेरिव कथंचन // 24 // व्यक्तिवर्णस्य संस्कारः श्रोत्रस्याथोभयस्य वा। तद्बुद्धितावृतिच्छेदः साप्येतेनैव दूषिता // 25 // विशेषाधानमप्यस्य नाभिव्यक्तिर्विभाव्यते। नित्यस्यातिशयोत्पत्तिविरोधात्स्वात्मनाशवत् // 26 // कलशादेरभिव्यक्तिींपादेः परिणामिनः। प्रसिद्धेति न सर्वत्र दोषोयमनुषज्यते // 27 // नित्यस्य व्यापिनो व्यक्तिः साकल्येन यदीष्यते। किं न सर्वत्र सर्वस्य सर्वदा तद्विनिश्चयः॥२८॥ यदि कहो कि शब्द और उसकी अभिव्यक्ति के मध्य में पड़ा हुआ सम्बन्ध तो प्रतियोगी अभिव्यक्ति और अनुयोगी शब्द से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न स्वरूप है, तब तो तुम्हारे यहाँ अभिव्यक्ति के समान शब्द को भी किसी अपेक्षा से बुद्धिपूर्वकपना सिद्ध होता है। अतः शब्द चाहे वैदिक हो अथवा लौकिक, मंत्र अथवा कोई भी हो, वे अनित्य हैं। शब्द वस्तुतः पुद्गल की पर्याय हैं॥२४॥ . मीमांसक यदि अकार, गकार आदि वर्गों के संस्कार हो जाने को शब्द की अभिव्यक्ति कहते हैं, या श्रोत्र इन्द्रिय के अतिशयाधानरूप संस्कार को शब्द की अभिव्यक्ति मानते हैं, अथवा वर्ण और श्रोत्र दोनों के संस्कारयुक्त हो जाने को शब्द की अभिव्यक्ति स्वीकार करते हैं - जो संस्कार उस शब्द के ज्ञान हो जाने का आवरण करने वाले कर्म आदि का विच्छेदस्वरूप माना जाता है, तो आचार्य कहते हैं कि वह संस्कार और अभिव्यक्ति भी इस युक्त कथन से दूषित कर दी गई है। अर्थात् शब्द को कूटस्थ नित्य मानने पर और श्रोत्र को नित्य आकाशस्वरूप स्वीकार करने पर उनका आवरण करने वाला कोई संभव नहीं है॥२५॥ मीमांसक के मतानुसार इस शब्द के विशेष अतिशयों का आधान कर देना रूप अभिव्यक्ति भी विचार करने पर निर्णीत नहीं हो सकती है, क्योंकि सर्वथा कूटस्थ नित्य शब्द के अतिशयों की उत्पत्ति होने का विरोध है - जैसे कि कूटस्थ नित्य पदार्थ की स्वात्मा का नाश हो जाना विरुद्ध है अर्थात् अपने पूर्व स्वभावों का त्याग, उत्तरस्वभावों का ग्रहण और स्थूल द्रव्यरूप से स्थिरता रूप से परिणमन करने वाले पदार्थ में ही उत्पाद या विनाश बन सकते हैं। सर्वथा नित्य शब्द में नवीन अतिशयों या विशेषताओं का आधान नहीं हो सकता है॥२६॥ ___जैसे अंधेरे में रखे हुए कलश आदि परिणामी पदार्थों की दीपक आदि से अभिव्यक्ति होना प्रसिद्ध है। अतः परिणामी पदार्थों की अभिव्यक्ति हो जाना रूप इस दोष का प्रसंग सर्वत्र नहीं लगता है। अर्थात् परिणामी पदार्थ की परिणामी पदार्थ से अभिव्यक्ति संभव है। शब्द अपने प्राचीन स्वभाव का त्याग करे और नवीन श्रावण स्वभाव को ग्रहण करे, तब परिणामी शब्द की व्यंजकों से अभिव्यक्ति हो सकती है। अतः उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य लक्षण वाले परिणामी पदार्थ में अभिव्यंज्य-अभिव्यंजक भाव बनता है, कूटस्थ में नहीं॥२७॥ अथवा, नित्य और सर्वत्र व्यापी शब्द की अभिव्यक्ति सम्पूर्ण रूप से मानते हो तो सर्वत्र सर्व जीवों के उस शब्द का निश्चय क्यों नहीं होता है? अर्थात् जब एक स्थान पर अभिव्यंजक द्वारा शब्द प्रकट हो चुका है तो सर्वत्र, सर्वदा सबको उस अखण्ड, निरंश शब्द के श्रवण करने में विलम्ब नहीं होना चाहिए।

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