Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 03
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 397
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 392 ___ चतुर्विधा हि वाग्वैखरी मध्यमा पश्यंती सूक्ष्मा चेति। तत्राक्षज्ञानं विनैव वैखर्या मध्यमया चात्मनः प्रभवति स्वसंवेदनं च अन्यथान्योन्याश्रयणस्य दुर्निवारत्वात्। तत एवानवस्थापरिहारोपि / न चैवं वाग्रूपता सर्ववेदनेषु प्रत्यवमर्शिनीति विरुध्यते पश्यत्या वाचा विनाक्षज्ञानादेरप्यसंभवात्। तद्धि यदि व्यवसायात्मकं तदा व्यवसायरूपां पश्यंतीवाचं कस्तत्र निराकुर्यादव्यवसायात्मकत्वप्रसंगात्। न चैव मन्योन्याश्रयोनवस्था वा युगपत्स्वकारणवशाद्वाक्संवेदनयोस्तादात्म्यमापन्नयोर्भावात्। यत्पुनरव्यवसायात्मकं दर्शनं तत्पश्यंत्यापि विनोपजायमानं न वाचाननुगतं सूक्ष्मया वाचा सहोत्पद्यमानत्वात् तस्याः सकलसंवेदनानुयायिस्वभावत्वात् / तया विना पुनः पश्यंत्या मध्यमाया वैखर्याश्चोत्पत्तिविरोधादन्यथा निर्बीजत्वप्रसंगात्। ततस्तद्वीजमिच्छता वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और सूक्ष्मा इन भेदों से शब्दवाणी चार प्रकार की है। भावार्थ : मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के बोलने, सुनने में आने वाली स्थूलवाणी वैखरी है। जाप देते समय या चुपके पाठ करते समय अन्तरंग में जल्प की गई श्वास उच्छ्वास की अपेक्षा नहीं रखने वाली . वाणी मध्यमा है तथा वर्ण, पद, मात्रा, उदात्त आदि विभागों से रहित वाणी पश्यन्ती है जो कि पदार्थों के जानने स्वरूप है एवं अंतरंग ज्योतिस्वरूप सूक्ष्मावाणी जगत् में सर्वदा सर्वत्र व्याप्त हो रही है। उन वाणियों में से वैखरी और मध्यमा के बिना भी इन्द्रियजन्यज्ञान और आत्मा का स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष उत्पन्न हो जाता है। अन्यथा इन्द्रिय और आत्म संवेदन में मध्यमा और वैखरी का संसर्ग मानने पर अन्योन्याश्रयदोष का निवारण कठिनता से भी नहीं हो सकेगा। अनवस्था तथा परिहार भी नहीं हो सकेगा। तथा इस प्रकार मानने पर सम्पूर्ण ज्ञानों में विचार करने वाली मानी गयी वागरूपता विरुद्ध नहीं पड़ती है। क्योंकि, पश्यन्ती वाणी के बिना इन्द्रियज्ञान आदि का दोष भी असम्भव है। अर्थात् - इन्द्रियज्ञान आदि में पश्यंती वाणी के साथ तादात्म्य हो जाने से वाक्स्वरूपपना अभीष्ट किया है क्योंकि निश्चयात्मक, व्यवसायस्वरूप पश्यंती वाणी का उनमें से कौन निराकरण कर सकेगा? अन्यथा इन्द्रियज्ञान आदि को अनिश्चयात्मकत्व का प्रसंग आयेगा। वह निश्चयस्वरूप को प्राप्त पश्यन्ती वाणी का ही.माहात्म्य है। इस प्रकार हम अद्वैतवादियों के यहाँ अन्योन्याश्रय अथवा अनवस्था दोष नहीं आता है क्योंकि अपने कारणों के वश से तदात्मकपने को प्राप्त ही वचन और ज्ञानों की युगपत् उत्पत्ति होना माना गया है। जो पुनः अनिश्चयात्मक दर्शन पश्यन्ती वाणी के बिना भी उत्पन्न होता है परन्तु सभी वाणियों के साथ वह अननुगत नहीं है अर्थात् अनुगत है क्योंकि चैतन्य स्वरूप निर्विकल्पदर्शन सूक्ष्म वाणी के साथ ही उत्पन्न होता है तथा उस सक्ष्म वाणी का सकल संवेदन के साथ अनगत होकर रहना स्वभाव है। उ सूक्ष्म वाणी के बिना पश्यन्ती, वैखरी और मध्यमा की उत्पत्ति का विरोध है। अन्यथा (यदि सूक्ष्मा वाणी के बिना ही पश्यन्ती आदि वाणी की उत्पत्ति मान लेने पर) मध्यमा आदि वाणी के निर्बीजता का प्रसंग आयेगा अर्थात् सूक्ष्मा वाणी रूप कारण के बिना भी मध्यमा आदि की उत्पत्ति रूप कार्य की उत्पत्ति हो जाएगी। इसलिए तीनों वचनों को बीजभूत स्वीकार करने वाले विद्वान पुरुषों को पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी को उत्पन्न करने की शक्तिरूप, सर्वदा सर्वव्यापिनी और सतत प्रकाशमान सूक्ष्मा वाणी को अवश्यं स्वीकार करना चाहिए।

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