________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 390 चेदुत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती। न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी' इति तदपास्तं भवति तयां विनैवाभिनिबोधिकस्य प्रकाशनादित्यावेदयतिवाग्रूपता ततो न स्याद्योक्ता प्रत्यवमर्शिनी। मतिज्ञानं प्रकाशेत सदा तद्धि तया विना // 10 // न हींद्रियज्ञानं वाचा संसृष्टमन्योन्याश्रयप्रसंगात्। तथाहि / न तावदज्ञात्वा वाचा संसृजेदतिप्रसंगात्। ज्ञात्वा संसृजतीति चेत् तेनैव संवेदनेनान्येन वा ? तेनैव चेदन्योन्याश्रयणमन्येन चेदनवस्थानं / अत्र शब्दाद्वैतवादिनामज्ञत्वमुपदी दूषयन्नाह;प्रकार के विचारों को करने वाला है।" इस कथन का भी आचार्यों ने निराकरण किया है क्योंकि शब्द योजना के बिना भी अवग्रह आदि और स्मृति आदि मतिज्ञान जगत् में प्रकाशित हैं। अर्थ और शब्द का कोई अजहत् सम्बन्ध भी नहीं है। शब्द योजना से रिक्त मतिज्ञान को ग्रन्थकार स्वयं निवेदन करते हैं। . ___ इसलिए शब्दाद्वैतवादियों ने जो ज्ञान में वागूपता को ही विचार करने वाला कहा था, वह युक्त नहीं है क्योंकि उस शब्दस्वरूपपने के बिना भी वह मतिज्ञान नियम से सदा प्रकाशित रहता है। भावार्थ : इन्द्रिय और मन से जो ज्ञान होते हैं, वे अर्थविकल्पस्वरूप आकार से सहित अवश्य हैं, किन्तु शब्दानुविद्ध नहीं हैं। वस्तु को निरूपण करने पर वह मतिज्ञान श्रुतज्ञान हो जाता है। मतिज्ञान के साथ अविनाभाव रखने वाले श्रुतज्ञान में ही शब्द योजना लगती है। सविकल्पक मति, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान ये सब स्वकीय स्वरूप में अवक्तव्य हैं। श्रुतज्ञान का अल्पभाग ही शब्द योजना के योग्य है॥१०॥ इन्द्रियों से उत्पन्न मतिज्ञान तो शब्दों के साथ संसर्गयुक्त होता नहीं है। अन्यथा अन्योन्याश्रय दोष हो जाने का प्रसंग आता है। इसी को स्पष्ट कर आचार्य कहते हैं कि पूर्व में अज्ञात वचनों के साथ ज्ञान का संसर्ग नहीं हो सकेगा, क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् - बिना जाने ही शब्दों का संसर्ग लग जाने से तो चाहे जिस अज्ञात पदार्थ को वचनों द्वारा बोलना शक्य हो जायेगा। कीट, पतंग, पशु, पक्षी भी अज्ञात अनन्त पदार्थ के शब्दयोजक बन जायेंगे। यदि इस अतिप्रसंग के निवारणार्थ पदार्थ को जान करके शब्द का संसर्ग हो जाता है - इस प्रकार मानोगे, तब तो हम कहेंगे कि उसी शब्दसंसृष्ट होने वाले सम्वेदन के द्वारा ज्ञान होना मानोगे? अथवा क्या अन्य किसी ज्ञान के द्वारा इन्द्रियज्ञान को जानकर उसके साथ वचनों का संसर्ग होना इष्ट करोगे? यदि प्रथम पक्षानुसार उसी ज्ञान के द्वारा जान लेना माना जाएगा तो अन्योन्याश्रय दोष आता है. क्योंकि उसी ज्ञान से इन्द्रियज्ञान का जानना सिद्ध होता है और इन्द्रिय ज्ञान के जान लिये जाने पर उसका जानना सिद्ध होता है। अर्थात् - शब्द का संसर्ग हो जाने पर ज्ञान होना सिद्ध होता है और ज्ञान हो जाने पर शब्द का संसर्ग होना सिद्ध होता है। यदि द्वितीय पक्षानुसार अन्य सम्वेदन करके इन्द्रिय ज्ञान को जाना जाएगा, तब तो अनवस्था होगी क्योंकि अन्यज्ञान को भी जानकर वचनों का संसर्ग तब लगाया जाएगा जबकि तृतीय ज्ञान से उस अन्य ज्ञान को जान लिया जाएगा। इस प्रकार ज्ञानों के ज्ञापक चतुर्थ, पंचम आदि ज्ञानों की बढ़ती-बढ़ती दूर जाकर भी अवस्थिति नहीं होगी, अतः कथमपि इन्द्रियजन्य ज्ञानों के साथ वचनों