________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 377 स्वादृष्टवशतः पुंसां शाब्दज्ञानविचित्रता। व्यक्तेपि कात्य॑तः शब्दे भावे सर्वात्मके न किम् // 29 // देशतस्तदभिव्यक्ती सांशता न विरुध्यते। व्यंजके यत्तु शब्दानामभिन्ने सकलश्रुतिः // 30 // तस्य क्वचिदभिव्यक्तौ व्यापारे देशभाक् स्वतः। नानारूपे तु नानात्वं कुतस्तस्यावगम्यताम् // 31 // स्वाभिप्रेताभिलापस्य श्रुतेरन्योन्यसंश्रयः। सिद्ध व्यंजकनानात्वे विशिष्टवचसः श्रुतिः // 32 // प्रसिद्धायां पुनस्तस्यां तत्प्रसिद्धिर्हि ते मते। यदि प्रत्यक्षसिद्धेयं विशिष्टवचसः श्रुतिः॥३३॥ यदि कहो कि कृत्स्न रूप से शब्द के अभिव्यक्त हो जाने पर भी जीवों के अपने-अपने पुण्य, पाप के वश से शब्द सम्बन्धी ज्ञान होने की विचित्रता होती है तो जैसे शब्द को व्यापक और नित्य माना जाता है, वैसे ही सर्व पदार्थात्मक भी मान लेना चाहिए अतः अभाव पदार्थ को नहीं मानकर सम्पूर्ण भावों को सर्वात्मक क्यों नहीं मानना चाहिए ? // 28-29 // ___यदि शब्द की साकल्येन अभिव्यक्ति नहीं मानकर एकदेश से अभिव्यक्ति होना मानेंगे तब तो व्यंग्य शब्द और व्यंजक वायु आदि में अंशसहितपना में विरोध नहीं आएगा। अर्थात् शब्द को प्रकट और अप्रकट दो रूप मानने पर शब्द के अनेक अंश मानने पड़ेंगे, जो कि मीमांसकों ने नहीं माने हैं। स्याद्वादियों के यहाँ शब्द को सांश मानने में कोई विरोध नहीं आता है। व्यंजक वायुओं के अधीन होकर शब्दों को अभिन्न मानने पर सम्पूर्ण वर्णों की युगपत् श्रुति हो जाएगी // 30 // - यदि मीमांसक उस व्यंजक का शब्द के किसी ही अंश में अभिव्यक्ति करने के निमित्त व्यापार मानेंगे, तब तो वह शब्द स्वतः ही छोटे-छोटे देशों को धारने वाला सिद्ध होगा, निरंश नहीं रहेगा। अथवा मीमांसक अखण्ड एक वर्ण के अभिव्यंजक कण्ठ तालुओं से अकार, इकार भाग की अभिव्यक्ति होना स्वीकार करेंगे तो भी शब्द में स्वतः देश अंशों का धारण करना प्राप्त होगा। एक ही वर्ण के इकार, अकार, उकार आदि नानास्वरूप स्वीकार करेंगे तो उस शब्द का या उसके व्यंजकों का अनेक स्वरूपपना कैसे जाना जा सकेगा? यदि मीमांसक कहें कि श्रोताओं को अपने-अपने अभीष्ट शब्दों का श्रवण होने से वर्ण और उनके व्यंजक कारण अनेकरूपं सिद्ध हो जाते हैं तो जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर उसमें अन्योन्याश्रय दोष आता है क्योंकि व्यंजकों का अनेकपना सिद्ध हो जाने पर तो विशिष्ट अनेक वचनों का श्रवण होना सिद्ध होता है और फिर विशेष विशिष्ट वचनों का श्रवण प्रसिद्ध होने पर उन व्यंजकों का नानापन सिद्ध होता है। यदि मीमांसक कहें कि यह विशिष्ट वचनों का श्रवण तो सभी जीवों को प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है अतः अन्योन्याश्रय दोष नहीं होता है। इस पर तो जैन कहेंगे कि प्रत्यक्ष प्रसिद्ध होने के कारण ही वचनों का मतिपूर्वकपना सिद्ध है, यह क्यों नहीं सरलता से मान लिया जाता है? शंका : हमारे यहाँ वचनों का उच्चारण करना दूसरों के ज्ञानों का निमित्त कारण माना गया है।