________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 359 प्राप्यकारि चक्षुः करणत्वाद्दात्रादिवदित्यत्राप्यंशत: सर्वान् प्रत्युद्योतकरेणोक्तो हेतुरनैकांतिको मनसा मंत्रेण च सर्पाद्याकृष्टिकारिणा प्रत्येयः पक्षश्च प्रमाणबाधितः पूर्ववत्॥ तदेवं चक्षुषः प्राप्यकारित्वे नास्ति साधनं / मनसश्च ततस्ताभ्यां व्यंजनावग्रहः कुतः // 10 // यत्र करणत्वमपि चक्षुषि प्राप्यकारित्वसाधनाय नालं च तत्रान्यत्साधनं दूरोत्सारितमेवेति मनोवदप्राप्यकारि चक्षुः सिद्धं। ततश्च न चक्षुर्मनोभ्यां व्यंजनस्यावग्रह इति व्यवतिष्ठते॥ दूरे शब्दं शृणोमीति व्यवहारस्य दर्शनात्। श्रोत्रमप्राप्यकारीति केचिदाहुस्तदप्यसत् // 91 // . दूरे जिघ्राम्यहं गंधमिति व्यवहृतीक्षणात्। घ्राणस्याप्राप्यकारित्वप्रसक्तिरिष्टहानितः // 12 // करणपना होने से। इस प्रकार के यहाँ अनुमान में एक-एक अंश से सभी इन्द्रियों के प्रति या सम्पूर्ण वादियों के प्रति वैशेषिकों के उद्योतकर विद्वान के द्वारा कथित करणत्व हेतु मन और सर्प आदि का आकर्षण करने वाले मंत्र से व्यभिचारी है, ऐसा विश्वासपूर्वक निर्णय कर लेना चाहिए। मन और मंत्र दोनों प्राप्त नहीं होकर दूर से ही कार्य करते रहते हैं। उद्योतकर पंडित के इस अनुमान का पक्ष प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम प्रमाणों से बाधित भी है। जैसे कि पहले बाह्य इन्द्रियत्व हेतु द्वारा उठाया गया अनुमान बाधाग्रस्त कर दिया गया इस प्रकार चक्षु और मन का प्राप्यकारीपना सिद्ध करने में नैयायिक या वैशेषिकों के यहाँ कोई समीचीन ज्ञापक हेतु नहीं है। मन के प्राप्यकारीपन को तो वे प्रथम से ही इष्ट नहीं करते हैं अतः उन चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह कैसे हो सकता है? अर्थात् - कथमपि नहीं। अत: “न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्” - यह सूत्र युक्त है॥९०॥ जहाँ चक्षु के प्राप्यकारित्व को साधने में वैशेषिकों द्वारा दिया गया करणत्व हेतु भी चक्षु में प्राप्यकारित्व को साधने के लिए समर्थ नहीं है, तो फिर वहाँ कोई अन्य दूसरे भौतिकत्व, बाह्य इन्द्रियत्व विप्रकृष्टार्थग्राहकत्व हेतु तो दूर से ही निकाल दिये गए हैं अत:मन के समान चक्षु इन्द्रिय भी अप्राप्यकारी सिद्ध है। अतः चक्षु और मन के द्वारा अस्पष्ट व्यंजनावग्रह नहीं हो पाता है। इस प्रकार सूत्र निर्दोष व्यवस्थित हो जाता है। ... दूर क्षेत्र में स्थित शब्द को 'मैं सुन रहा हूँ'- इस प्रकार व्यवहार के देखने से श्रोत्र इन्द्रिय अप्राप्यकारी है। इस प्रकार किसी मीमांसक का कहना भी सत्य नहीं है, क्योंकि दूर देश में स्थित गन्ध को 'मैं सूंघ रहा हूँ।' इस प्रकार का व्यवहार भी देखा जाता है अत:मन नासिका को अप्राप्यकारीपना सिद्ध हो जाने का प्रसंग आवेगा तो इष्ट सिद्धान्त की हानि हो जाएगी क्योंकि, नासिका का अप्राप्यकारीपना तो वादी प्रतिवादी दोनों को ही अभीष्ट नहीं है।९१-९२॥ प्रकृष्ट गन्ध के अधिष्ठानभूत किसी दूरवर्ती प्राप्त द्रव्य का सम्बन्ध हो जाने पर दूरपने से उस प्रकार