Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 03
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

View full book text
Previous | Next

Page 376
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *371 पूर्वशब्दप्रयोगस्य व्यवधानेपि दर्शनात् / न साक्षान्मतिपूर्वस्य श्रुतस्येष्टस्य बाधनम् // 6 // लिंगादिवचनश्रोत्रमतिपूर्वात्तदर्थगात् / श्रुताच्छुतमिति सिद्धं लिंगादिविषयं विदाम् // 7 // नन्वेवं केवलज्ञानपूर्वकं भगवदर्हत्प्रभाषितं द्रव्यश्रुतं विरुद्ध्यत इति मन्यमानं प्रत्याह;न च केवलपूर्वत्वात्सर्वज्ञवचनात्मनः / श्रुतस्य मतिपूर्वत्वनियमोत्र विरुध्यते॥८॥ ज्ञानात्मनस्तथाभावप्रोक्ते गणभृतामपि। मतिप्रकर्षपूर्वत्वादर्हत्प्रोक्तार्थसंविदः // 9 // श्रुतज्ञानं हि मतिपूर्वं साक्षात्पारंपर्येण वेति नियम्यते न पुनः शब्दमात्रं यतस्तस्य केवलपूर्वत्वेन विरोध: स्यात् / न च गणधरदेवादीनां श्रुतज्ञानं केवलपूर्वकं तन्निमित्तशब्दविषयमतिज्ञानातिशयपूर्वकत्वात्तस्येति निरवद्यं // __ व्यवधान हो जाने पर भी पूर्वशब्द का प्रयोग होना देखा जाता है अत: जिस श्रुत में साक्षात्रूप से अथवा श्रुतजन्य श्रुतज्ञान में परम्परा से मतिज्ञान निमित्त हो रहा है, उस इष्ट श्रुत के उत्पत्ति की कोई बाधा प्राप्त नहीं है। अर्थात् - “मतिपूर्वं' कहने से साक्षात् मतिपूर्वक और परम्परामतिपूर्वक दोनों का ग्रहण हो जाता है। लिंग आदि के वचन को पूर्व में श्रोत्र मतिज्ञान से जानकर उसके वाच्य अर्थ का विषय करने वाले पहले श्रुतज्ञान से सांध्य आदि को विषय करने वाला दूसरा श्रुतज्ञान विद्वानों के यहाँ इस प्रकार से प्रसिद्ध है। अर्थात् उस दूसरे श्रुतज्ञान से अनुमेयपन धर्म को जानने वाला तीसरा श्रुतज्ञान भी उत्पन्न हो सकता है। जिस हेतु से जहाँ मूल साध्य को साधा जाता है, वहाँ दस, पन्द्रह भी श्रुतज्ञान उत्तरोत्तर हो सकते हैं। उन सबके पहिले होने वाला मतिज्ञान उनका परम्परया निमित्तकारण है॥६-७॥ शंका : इस प्रकार कहने पर अर्हन्तदेव द्वारा कथित शब्दात्मक द्रव्यश्रुत को केवलज्ञानपूर्वकपना विरुद्ध होगा, क्योंकि जैनाचार्य श्रुत के पूर्व में मतिज्ञान या श्रुतज्ञान ही स्वीकार करते हैं। अर्थात् देवाधिदेव भगवान के शब्दमय द्रव्यश्रुत के पूर्व में केवलज्ञान है। व्यवहित या अव्यवहितरूप से मतिज्ञान वहाँ पूर्ववर्ती नहीं है अत: मतिपूर्वक श्रुतज्ञान घटित नहीं है। इस प्रकार कहने वाले के प्रति आचार्य समाधान कहते हैं ___ सर्वज्ञ प्रतिपादित वचनस्वरूप श्रुत केवलज्ञानपूर्वक हो जाने से इस प्रकरण में श्रुत के मतिपूर्वक होने के नियम का कोई विरोध नहीं आता है। क्योंकि ज्ञानात्मक श्रुत को मतिज्ञानपूर्वक कहा है। ऐसा होने पर सभी श्रुतज्ञानों को साक्षात् या परम्परा से मतिपूर्वकपना सिद्ध होता है। चार ज्ञान को धारने वाले गणधर देव के भी अहँतभाषित अर्थ की श्रुतज्ञानरूप सम्वित्ति को प्रकर्षमतिज्ञानपूर्वकपना है। अभिप्राय यह है कि भगवान के शब्दों को कर्ण इन्द्रिय से सुनकर श्रावणमतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान गणधरों के भी होता है, गणधरों के लिए कोई पृथक् मार्ग नहीं है॥८-९॥ ज्ञानस्वरूप श्रुत साक्षात् अथवा परम्परा से पूर्ववर्ती मतिज्ञान से ही उत्पन्न होता है, ऐसा नियम किया गया है किन्तु फिर भी सम्पूर्ण शब्दात्मक श्रुत मतिपूर्वक है, यह नियम नहीं किया गया है, जिससे कि उन सर्वज्ञ वचनों को केवलज्ञानपूर्वकपना होने के कारण विरोध दोष हो सकता है। अर्थात् - द्रव्यश्रुत के पूर्व में केवलज्ञान के हो जाने से श्रुतज्ञान के मतिपूर्वकपन का पूर्वापर में कोई विरोध नहीं आता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438