________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 357 ननु यथा हरीतकी प्राप्य मलमंगाद्विरेचयति तथायस्कांतपरमाणवः शरीरांतर्गतं शल्यं प्राप्याकर्षति शरीरादिति मन्यमानं प्रत्याह;प्राप्ता हरीतकी शक्ता कर्तुं मलविरेचनं / मलं न पुनरानेतुं हरीतक्यंतरं प्रति // 85 // तर्हि यथाननान्निर्गतो वायुः पद्मनालादिगः प्राप्य पानीयमाननं प्रत्याकर्षति तथायस्कांतांतरगाः परमाणवो बहिरवस्थितायस्कांतावयविनो निर्गताः प्राप्य लोहं तं प्रत्येवाकर्षतीति शंकमानं प्रत्याह;आकर्षणप्रयत्नेन विनाननकृतानिलः। पद्मनालादिगोंभांसि नाकर्षति मुखं प्रति // 86 // तर्हि पुरुषप्रयत्ननिरपेक्षा यथादित्यरश्मयः प्राप्य भूगतं तोयं तमेव प्रति नयंति तथायस्कांतपरमाणवोपीत्यभिमन्यमानं प्रत्याह;सूर्यांशवो नयंत्यंभः प्राप्य तत्सूर्यमंडलं / चित्रभानुत्विषो नास्तमिति स्वेच्छोपकल्पितम् // 87 // है। किन्तु चुम्बक के सूक्ष्म भागों का अपने अधिष्ठान के आश्रित होकर निकट जाना प्रतीत नहीं होता है। अतः अप्राप्यकारी मन के समान चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है। जिस प्रकार बड़ी हरड़ पेट में जाकर शरीर के सभी अंग-उपांगों से मल का विशेषरूप से रेचन करा देती है, उसी प्रकार चुम्बक पाषाण के परमाणु भी सम्बन्ध को प्राप्त होकर शरीर के भीतर प्रविष्ट हुई सुई, कील को शरीर के बाहर खींच लेते हैं, स्पर्श किये बिना नहीं खींचते हैं। इस प्रकार कहने वाले प्रतिवादी के प्रति आचार्य कहते हैं - तब तो मुख से निकल चुकी वायु जैसे कमलनाल आदि में प्राप्त जल को मुखद्वार के प्रति आकर्षण करती है, उसी प्रकार अयस्कांत के अन्तरंग परमाणु या चुम्बक और लोहे के अन्तराल में पड़े हुए चुम्बक परमाणु ही बाहर स्थिर हो रहे अयस्कांत अवयवी से निकलते ही शरीर के भीतर लोहे को प्राप्त होकर उस लोहे को चुम्बक अवयवी के प्रति खींच लेते हैं। इस प्रकार शंका करने वाले के प्रति आचार्य कहते हैं - ___ मुख से की गयी वायु कमलनली आदि में प्राप्त वायु आकर्षण प्रयत्न के बिना जल को मुख के प्रति नहीं खींच सकती है। अर्थात् चक्षु के अप्राप्यकारित्व को सिद्ध करने में स्याद्वादियों की ओर से दिये गए अयस्कांत दृष्टान्त को पद्मनाल की वायु का दृष्टान्त देकर बिगाड़ना ठीक नहीं है। अथवा भौतिकत्व हेतु का अयस्कांत करके हुए व्यभिचार दोष का निवारण यवनाल की वायु से नहीं हो सकता है॥८६॥ ... सूर्य की किरणें पुरुष के प्रयत्न की अपेक्षा के बिना पृथ्वी में प्राप्त जल को सूर्य के प्रति ही ले जाती हैं, उसी प्रकार अयस्कांत के परमाणु भी प्राप्त होकर लोह को अपने निकट खींच लेते हैं। इस प्रकार मानने वाले प्रतिवादी के प्रति आचार्य उत्तर कहते हैं - सूर्य की किरणें पृथ्वी पर नीचे उतरकर, जल को प्राप्त होकर, फिर उस सम्बन्धित जल को सूर्य मंडल के प्रति प्राप्त कराती हैं, किन्तु वे सूर्य किरणें अस्ताचल को प्राप्त सूर्यमंडल के प्रति जल को नहीं प्राप्त कराती हैं। यह तो अपनी इच्छा से उपकल्पित किया गया विज्ञान है। सूर्य किरणें अप्राप्त होकर भी जल