Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 03
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 368
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 363 तदुपचार इतिचेत् गंधादिषु कुतः ? स्वाश्रयमहत्त्वादिति चेत् तत एव शब्दस्य द्रव्यंत्व माभूत् महत्त्वादिगुणाश्रयत्वात् शब्दे द्रव्यमिति चेत्तत् एव शब्देपि मुख्यमहत्त्वादेरसंभवः। शब्दे किमवगतः ? त्वयापि गंधादौ स किमु निश्चितः। गंधादयो न मुख्यमहत्त्वाद्युपेताः शश्वदस्वतंत्रत्वादभाववदित्यतोनुमानात्तदसंभवो निश्चित इति चेत् , तत एव शब्देपि स निश्चीयतां / शब्दे तदसिद्धेर्न तन्निश्चेयः सर्वदा तस्य स्वतंत्रस्योपलब्धेरिति चेत् गंधादावपि तत एव तदसिद्धेः। कुतस्तु तन्निश्चयः तस्य क्षित्यादिद्रव्यतंत्रत्वेन प्रतीतेरस्वतंत्रत्वसिद्धिरिति प्रश्न : शब्द में किस हेतु से उन महत्त्व आदि का उपचार किया जाता है? उत्तर : जैनाचार्य भी मीमांसकों से पूछते हैं कि गन्ध, स्पर्श आदि में महत्त्व आदि गुणों के रहने के उपचार का निमित्त क्या है? यदि कहो कि अपने आधारभूत द्रव्यों के महत्त्व से आधेय गन्ध आदि में भी महत्त्व उपचरित हो जाता है, तब तो शब्द में भी अपने आधार पुद्गल के महत्त्व से महत्त्व उपचरित कर लिया जाता है आधार के धर्म आधेय में आ जाते हैं। शब्द में मुख्य महत्त्व, स्थूलत्व आदि का असंभवपना कैसे जान लिया है, जिससे कि जैन शब्द में महत्त्व आदि को मुख्य रूप से नहीं मानकर उपचार से मान रहे हैं? मीमांसकों के इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में जैन पूछते हैं कि क्या मीमांसकों ने भी गंध आदि में वह मुख्य महत्त्व आदि का अभाव निश्चित कर लिया है? जिससे कि गन्ध, स्पर्श आदि में उपचरित महत्त्व आदि गुणों को मानते हैं। इस पर मीमांसक अनुमान बनाकर कहते हैं कि गन्ध आदि गुण मुख्यरूप से महत्त्व, ह्रस्वत्व आदि गुणों से युक्त नहीं हैं, सर्वदा स्वतंत्र नहीं होने से, जैसे कि अभाव पदार्थ। इस अनुमान से पराधीन गन्ध आदि में उन मुख्य महत्त्व आदि का असंभव निश्चित कर लिया गया है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार शब्द में भी मुख्यरूप से महत्त्व आदि का असम्भव निर्णीत कर लिया गया है। शब्द भी सर्वदा परतंत्र होने के कारण अभाव के संमान होता हुआ मुख्य महत्त्व आदि को धारण नहीं कर सकता। . सदा परतंत्रपना हेतु शब्द में नहीं रहता है, अत: पक्ष में नहीं रहने वाले उस स्वरूपासिद्ध हेतु से महत्त्व आदि गुणों का मुख्यरूप से नहीं रहना शब्द में निश्चय करने योग्य नहीं है, क्योंकि सदा ही स्वतंत्र होकर रहने वाले उस शब्द की उपलब्धि हो रही है। इस प्रकार मीमांसकों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि गन्ध, स्पर्श आदि में भी हेतु की असिद्धि हो जाने से उस मुख्य महत्त्व के असम्भव की सिद्धि नहीं हो सकेगी। अर्थात् गन्ध आदि गुण भी तो स्वंतत्र दीख रहे हैं। पुन: मीमांसक कहते हैं कि उन गन्ध आदि की स्वतंत्र उपलब्धि होने का निश्चय कैसे हो सकता है? क्योंकि गन्ध आदि तो सदा पृथ्वी आदि द्रव्यों के अधीन प्रतीत होते हैं अतः अस्वतंत्रपना हेतु गन्ध, स्पर्श आदि में तो सिद्ध होता है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि शब्द की उपलब्धि भी वक्ता, भेरी आदि द्रव्यों की अधीनता से होती है अत: अस्वतंत्रपन हेतु की शब्द में सिद्धि हो जाने पर शब्द में मुख्य रूप से महत्त्वगुण नहीं ठहर सकता है। गन्ध आदि के समान उपचार से ही महत्त्व आदि रह सकते हैं।

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