Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 03
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 371
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *366 तत्रारेकोत्करः सर्वो गंधद्रव्ये समस्थितः। समाधिश्शेति न व्यासेनास्माभिरभिधीयते // 18 // प्रपंचतो विचारितमेतदन्यत्रास्माभिरिति नेहोच्यते॥ श्रुतं मतिपूर्वं व्यनेकद्वादशभेदम्॥ 20 // किमर्थमिदमुपदिष्टं मतिज्ञानप्ररूपणानंतरमित्याह;किं निमित्तं श्रुतज्ञानं किं भेदं किं प्रभेदकम् / परोक्षमिति निर्णेतुं श्रुतमित्यादि सूत्रितम् // 1 // उस शब्द में उठाई गयी सम्पूर्ण शंकाओं का समूह गन्धद्रव्य में आकर समानरूप से उपस्थित हो जाता है और जो उस गन्ध द्रव्य का समाधान किया जाता है, वही समाधान पौगलिक शब्द द्रव्य में लागू हो जाता है। इस प्रकार हमने विस्तार के साथ इसका कथन नहीं किया है। यहाँ संक्षेप में ही किया है क्योंकि इनका विस्तारपूर्वक कथन हमने अन्यत्र किया है; यहाँ नहीं किया है। अतः पुद्गलद्रव्य की पर्याय शब्द है; यह जगत् प्रसिद्ध सिद्धान्त है॥९८॥ यहाँ तक दो परोक्ष ज्ञानों में से मतिज्ञान का वर्णन कर दूसरे क्रम प्राप्त श्रुतज्ञान का निरूपण करने के लिए श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र कहते हैं - श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है, उसके दो, अनेक और बारह भेद हैं // 20 // भावार्थ : श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न अर्थ, अर्थान्तर ज्ञान होना श्रुतज्ञान है। वह मतिपूर्वक होता है। उसके अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट - ये दो भेद हैं। भगवान सर्वज्ञ देव रूपी हिमाचल से निकली हुई वचन रूपी गंगा के अर्थरूपी निर्मल जल से प्रक्षालित अन्तःकरण वाले ऋद्धिधारी गणधरों द्वारा ग्रन्थरूप से रचित आचार आदि 12 अंग-अंग प्रविष्ट कहलाते हैं। आरातीय आचार्य कृत, अंग अर्थ के आधार से रचित ग्रन्थ अंगबाह्य है। 'कालिक उत्कालिक आदि भेदों से अंगबाह्य अनेक प्रकार का है। अंग प्रविष्ट, आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, दृष्टिवाद-इन भेदों से बारह प्रकार का है। अथवा सोलह सौ चौतीस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार, आठ सौ अठासी (16348307888) अपुनरुक्त अक्षरों का सम्पूर्ण श्रुत के एक कम एकट्ठि प्रमाण अक्षरों में भाग देने से एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख अठावन हजार पाँच (1128358005) पद तो अंगप्रविष्ट के हैं और शेष आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पिचत्तर अक्षरों का अंग बाह्य है॥ ___ मतिज्ञान का निरूपण करने के अव्यवहित उत्तर ही, इस सूत्र का श्री उमास्वामी महाराज ने किस प्रयोजन के लिए उपदेश किया है? इस प्रकार की जिज्ञासा का श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर देते हैं - उस परोक्ष श्रुतज्ञान का निमित्त कारण क्या है? और श्रुतज्ञान के भेद कौन और कितने हैं? तथा परोक्ष श्रुतज्ञान के भेदों के भी उत्तर भेद कितने और कौन-कौन हैं? इस प्रकार की जिज्ञासाओं का निर्णय “श्रुतं मतिपूर्वं व्यनेकद्वादशभेदम्' सूत्र द्वारा श्री उमास्वामी महाराज ने निरूपित किया है॥१॥

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