Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 03
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 345
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 340 विनाशानंतरोत्पत्तौ पुनर्नाशे पुनर्भवेत्। कुतो निरंतरं तेन छादितार्थस्य दर्शनम् // 25 // स्पर्शनेन च निर्भेदशरीरस्य महोंगिनाम् / सांतरेणानुभूयेते तस्य स्पर्शनदर्शने // 26 // ___ स्फटिकादेराशूत्पादविनाशाभ्यामभेदग्रहणं निरंतरं पश्यतः संततं न तद्भेदाभ्युपगमस्य बाधक मित्ययुक्तमाश्वेव दर्शनादर्शनयोस्तत्र प्रसंगात् / स्पर्शनास्पर्शनयोश्च / न च तत्र तदा कस्यचिदुपयुक्तस्यासदर्शनास्पर्शनाभ्यां व्यवहिते दर्शनस्पर्शने समनुभूयेते / तद्विनाशस्य पूर्वोत्तरोत्पादाभ्यामाशु ग्रहण ही उन स्फटिक आदि के छेदन, भेदन के स्वीकार करने में बाधा डालेगा। उस दशा में हमको चिन्ता करने से क्या लाभ है? ___विनाश के अनन्तर ही शीघ्र पुनः नवीन स्फटिक उत्पन्न हो जाता है और फिर शीघ्र चक्षुकिरणों से नष्ट कर दिया जाता है तथा फिर उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार वैशेषिकों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसी अवस्था में उस स्फटिक से आच्छादित अर्थ का निरन्तर दर्शन कैसे हो सकेगा? __ अर्थात् चक्षुरश्मियाँ जब स्फटिक को तोड़ती-फोड़ती रहेंगी और वह क्षण-क्षण में नया उत्पन्न होता रहेगा, ऐसी दशा में चक्षुरश्मियाँ भीतर जाकर अर्थ के साथ सम्बन्ध कैसे कर सकेंगी। अर्थात् स्फटिक से ढके हुए अर्थ का दर्शन नहीं होना चाहिए, किन्तु होता है॥२५॥ _____ संसारी प्राणियों के शरीर का तेज स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा (दूसरे शरीर की उष्णता का) निर्भेद रूप से अनुभव होता है। किन्तु नष्ट हो रहे उस शरीर के दर्शन और स्पर्शन तो अन्तरसहित ही अनुभूत किये जाते हैं। ____ जहाँ सतत उत्पाद या विनाश होता रहता है, उस पदार्थ का दर्शन और स्पर्शन तो मध्य में अभाव का अन्तराल डालकर होता है जैसे कि बादलों में बिजली दिखना अथवा चलते हुए पहिये के अरों का छूना अन्तराल सहित है। किन्तु यहाँ प्रकृत में स्फटिक का दर्शन और स्पर्शन दोनों अन्तराल रहित होते हैं ऐसी दशा में स्फटिक आदि का शीघ्रता से नाश या उत्पाद मानना उचित नहीं है॥२६॥ ____ “स्फटिक, काच आदि का अतिशीघ्र उत्पाद और विनाश हो जाने से सादृश्य भ्रान्ति के वश निरन्तर एकपने रूप अभेद को ग्रहण करना तो सदा देखने वाले पुरुष के उन स्फटिक आदि के छेदन, भेदन स्वीकार करने का बाधक नहीं है अर्थात् घण्टों निरन्तर देखने वाले पुरुष के स्फटिक आदि का शीघ्र उत्पाद और विनाश हो जाने के कारण “यह वही स्फटिक है" ऐसा सादृश्य के वश अभेद ज्ञान होता है। वस्तुतः देखा जाए तो वह स्फटिक सदा चक्षु की किरणों से छिद-भिद रहा है अत: उस सादृश्यमूलक एकत्व ग्रहण से वैशेषिकों द्वारा स्फटिक का भिद जाना स्वीकार करना बाधित नहीं होता है। वैशेषिक का यह कहना अयुक्त है क्योंकि ऐसा मानने पर वहाँ शीघ्र ही दर्शन और अदर्शन हो जाने का प्रसंग आयेगा। तथा स्पर्शन और अस्पर्शन हो जाने का भी प्रसंग होगा। भावार्थ : आँखों से एक हाथ दूर पर रखे हुए स्फटिक को हम आँखों से देख रहे हैं, हाथ से छू रहे हैं। यदि स्फटिक का उस समय वहाँ शीघ्र उत्पाद एवं विनाश माना जायेगा तो स्फटिकं के नष्ट होने

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