Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 03
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 351
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 346 रूपाभिव्यंजने चाणां नालोकापेक्षणं भवेत् / तैजसत्वात्प्रदीपादेरिव सर्वस्य देहिनः // 40 // यथैकस्य प्रदीपस्य सुस्पष्टार्थप्रकाशने। मंदत्वादसमर्थस्य द्वितीयादेरपेक्षणम् // 41 // तथाक्ष्णोर्न विरुद्ध्येत सूर्यालोकाद्यपेक्षणं / स्वकार्ये हि स्वजातीयं सहकारि प्रतीक्ष्यते // 42 // तदसल्लोचनस्यार्थप्रकाशित्वाविनिश्चयात्। कथंचिदपि दीपादिनिरपेक्षस्य प्रदीपवत् // 43 // अंधकारावभासोस्ति विनालोकेन चेन्न वै। प्रसिद्धस्तेंधकारोस्ति ज्ञानाभावात्परोर्थकृत् // 44 // परेष्ट्यास्तीति चेत्तस्याः सिद्धं चक्षुरतैजसं। प्रमाणत्वेन्यथा नांधकारः सिद्ध्येत्ततस्तव // 45 // लगाने पर भी चन्द्र उद्योत आदि करके व्यभिचार दोष लगा रहना तदवस्थ रहता है अतः हेतु का गमकपना नहीं होने के कारण चक्षु में तैजसपने की सिद्धि नहीं हो सकी। इस कारण उस तैजसत्व हेतु से चक्षु की किरणवत्ता सिद्ध नहीं हो पाएगी। अथवा यदि सम्पूर्ण शरीरी आत्माओं की चक्षुओं को किरण सहित तैजस माना जाएगा तब तो तेज का विवर्त होने के कारण चक्षुओं को रूप की अभिव्यक्ति कराने में अन्य सूर्य, प्रदीप आदि के आलोक या प्रकाश की अपेक्षा नहीं होना चाहिए। जैसे कि प्रदीप, सूर्य आदि को रूप के प्रकाशने में अन्य सूर्य, दीप आदि के आलोकांतर की अपेक्षा नहीं होती है किन्तु मनुष्य आदि को अंधेरे में चाक्षुष प्रत्यक्ष करने के लिए . आलोक प्रकाश की अपेक्षा होती देखी जाती है अत: चक्षु का तैजसपना असिद्ध है॥४०॥ वैशेषिक कहता है कि अर्थ के स्पष्ट प्रकाश करने में मन्द होने के कारण असमर्थ हो रहे एक दीपक को जैसे दूसरे, तीसरे आदि दीपकों की अपेक्षा हो जाती है, उसी प्रकार मन्द प्रकाशी होने से मनुष्यों के नेत्रों को भी सूर्य, चन्द्र, प्रदीप आदि के आलोक, उद्योत आदि की अपेक्षा करना विरुद्ध नहीं पड़ता है, क्योंकि अपने द्वारा करने योग्य कार्य में अपनी समान जाति वाले सहकारी कारण की प्रतीक्षा हो ही जाती है अत: तैजस नेत्रों को तैजस सूर्य, दीप आदि की आकांक्षा होना स्वाभाविक है॥४१-४२॥ ___ जैनाचार्य कहते हैं कि यह वैशेषिकों का कहना प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि प्रदीप के समान अन्य दीपक, सूर्य आदि की अपेक्षा नहीं रखने वाले मनुष्यों के नेत्रों को किसी भी प्रकार से अर्थप्रकाशकपने का विशेष निश्चय नहीं है। अर्थात्-मनुष्यों को चाक्षुषप्रत्यक्ष करने में अन्य आलोक की अपेक्षा आवश्यक है। मन्द से भी अतिमन्द प्रदीप को स्वप्रकाशन में अन्य दीपों की आवश्यकता नहीं है॥४३॥ ___“रात्रि में आलोक के बिना भी अन्धकार का प्रतिभास हो जाता है अत: चाक्षुष प्रत्यक्ष करने में आलोक की आवश्यकता नहीं है।" ऐसा कहते हो तो (आपके) वैशेषिकों के यहाँ ज्ञानाभाव से अतिरिक्त कोई भिन्न अर्थक्रिया को कहने वाला अन्धकार नामक पदार्थ निश्चय से प्रसिद्ध ही नहीं माना गया है। फिर आलोक अन्धकार के बिना ही दीख जाने का हम पर व्यर्थ आपादन क्यों किया जाता है? // 44 // जैनों के ऊपर अन्धकार के आलोक बिना ही प्रत्यक्ष हो जाने का कटाक्ष किया जा सकता है। यदि दूसरे (जैनों की) दृष्टि से ही अन्धकार नामक पदार्थ सिद्ध किया जाता है, तो स्याद्वादियों की उस दृष्टि को प्रमाणपना मानने पर चक्षु अतैजस भी सिद्ध हो जाती है। अन्यथा (जैन आचार्यों के इष्ट सिद्धान्त को

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