________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 331 पौन:पुन्येन विक्षिप्ता व्यक्तां तामेव कुर्वते / तत्प्राप्तिभेदतस्तद्वदिंद्रियाण्यप्यवग्रहम् // 5 // अप्राप्तिकारिणी चक्षुर्मनसी कुरुतः पुनः। व्यक्तामर्थपरिच्छित्तिमप्राप्तेरविशेषतः॥६॥ यथायस्कांतपाषाण: शल्याकृष्टिं स्वशक्तितः। करोत्यप्राप्तिकारीति व्यक्तिमेव शरीरतः // 7 // न हि यथा स्वार्थयोः स्पृष्टिलक्षणाप्राप्तिरन्योपचयस्पृष्टि तारतम्याद्भिद्यते तथा तयोरप्राप्तिर्देशव्यवधानलक्षणापि कात्न्ये॒नास्पृष्टेरविशेषात्। तद्व्यवधायकदेशास्पदादप्राप्तिरपि भिद्यते एवेति चेत् किमयं पर्युदासप्रतिषेधः प्रसज्यप्रतिषेधो वा ? प्रथमपक्षेऽक्षार्थाप्राप्तिरन्या न वार्थः पुनरेवं “नञिव युक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथा ह्यर्थगतिः" इति वचनात् सा च नावग्रहादेः कारणमिति तद्भेदेपि कुतस्तद्भेदः / व्यक्त आर्द्रता को कर देती हैं। क्योंकि व्यक्त, अव्यक्त गीला करने में उन जलबिन्दुओं की पात्र के साथ प्राप्ति विशिष्ट प्रकार की है, उसी प्रकार प्रथम इन्द्रियों के द्वारा अव्यक्त अवग्रह होता है पुनः तदनन्तर व्यक्त अवग्रह होता है // 4-5 // किन्तु फिर अप्राप्यकारी चक्षु और मन ये दो इन्द्रियाँ व्यक्त अर्थज्ञप्ति को करती हैं। अर्थात् अप्राप्यकारी होने से चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता है क्योंकि दोनों इन्द्रियों में अप्राप्ति होने का कोई अन्तर नहीं है। जैसे दूर से लोहे को खींचने वाला चुम्बक पत्थर अपनी शक्ति से ही सुई, बाण आदि का आकर्षण कर लेता है। इस कारण वह चुम्बक पाषाण आकर्ण्य विषय के साथ प्राप्ति नहीं करता हुआ अपनी शक्ति से ही खेंचना रूप कार्य को व्यक्त ही कर देता है॥६-७॥ भावार्थ - जैसे चुम्बक अप्राप्य लोहे को खींचता है। परन्तु अति दूरवर्ती, अतीत, अनागत और व्यवहित को नहीं खींचता है, उसी प्रकार अप्राप्यकारी चक्षु भी अप्राप्य को ग्रहण करके भी अतिदूरवर्ती, अतीत, अनागत और व्यवहित को ग्रहण नहीं करती है। तथा एक चुम्बक दूर से लोहे को खींचता है और दूसरा दूर से तो खींच नहीं सकता है, किन्तु लोहे का स्पर्श हो जाने पर उसको खींचे रहता है। ऐसी ही दशा अप्राप्यकारी और प्राप्यकारी इन्द्रियों की समझ लेना। जैसे स्व यानी इन्द्रियाँ और अर्थ का स्पर्श हो जाना स्वरूप प्राप्ति दूसरे के साथ न्यून अधिक, एकदेश सर्वदेश आदि छूने के तारतम्य से भेद रूप होती हैं, उस प्रकार उन इन्द्रिय और विषयों की दैशिक व्यवधान लक्षण स्वरूप अप्राप्ति भिन्न-भिन्न नहीं होती है क्योंकि अपने पूर्ण स्वरूप से दूरदेशवर्ती विषय के साथ अस्पर्श होने का कोई अन्तर नहीं है अर्थात्-प्राप्यकारी चार इन्द्रियों की विषय के साथ भावरूप प्राप्ति का तो भेद हो सकता है, किन्तु अप्राप्यकारी दो इन्द्रियों की विषयों के साथ अभावस्वरूप अप्राप्ति पृथक्पृथक् नहीं है। उन दोनों के मध्य में अन्तराल कराने वाले देशों का आधान हो जाने से अप्राप्ति भी तो भिन्न-भिन्न हो जाती है। इस प्रकार किसी के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि वह अप्राप्ति शब्द में पड़ा हुआ यह “नञ्' क्या उत्तरपद के पूर्व में मिलरहा और तद्भिन्न तत्सदृश को ग्रहण करने वाला पर्युदास निषेध है? अथवा क्रिया के साथ अन्वित होकर सर्वथा निषेध करने वाला प्रसज्य अभाव है? प्रथम पक्ष ग्रहण करने पर तो इन्द्रिय